जूठन

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‘जूठन

जूठन प्रश्न उतर

1. विद्यालय में लेखक के साथ कैसी घटनाएँ घटती हैं

 

उत्तर- ‘जूठन’ शीर्षक आत्मकथा में कथाकार ओमप्रकाश के साथ विद्यालय में लेखक के साथ बड़ी ही दारुण घटनाएँ घटती हैं। बाल सुलभ मन पर बीतने वाली हृदय विदारक घटनाएँ लेखक के मनःपटल पर आज भी अंकित हैं। विद्यालय में प्रवेश के प्रथम ही दिन हेडमास्टर बड़े बेदब आवाज में लेखक से उनका नाम पूछता है। फिर उनकी जाति का नाम लेकर तिरस्कृत करता है। हेडमास्टर लेखक को एक बालक नहीं समझकर उसे नीची जाति का कामगार समझता है और उससे शीशम के पेड़ की टहनियों का झाडू बनाकर पूरे विद्यालय को साफ करवाता है। बालक की छोटी उम्र के बावजूद उससे बड़ा मैदान भी साफ करवाता है, जो काम चूहड़े जाति का होकर भी अभी तक उसने नहीं किया था। दूसरे दिन भी उससे हेडमास्टर वहीं काम करवाता है। तीसरे दिन जब लेखक कक्षा के कोने में बैठा होता है, तब हेडमास्टर उस बाल लेखक की गर्दन दबोच लेता है तथा कक्षा से बाहर लाकर बरामदे में पटक देता है। उससे पुराने काम को करने के लिए कहा जाता है। लेखक के पिताजी अचानक देख लेते हैं। उन्हें यह सब करते हुए बेहद तकलीफ होती है और वे हेडमास्टर से बकझक कर लेते हैं।

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2. पिताजी ने स्कूल में क्या देखा? उन्होंने आगे क्या किया? पूरा विवरण अपने शब्दों में लिखें।

 

उत्तर- लेखक को तीसरे दिन भी यातना दी जाती है, और वह झाडू लगा रहा होता है, तब अचानक उसके पिताजी उन्हें यह सब करते देख लेते हैं। वे बाल लेखक को बड़े प्यार से ‘मुंशीजी’ कहा करते थे। उन्होंने लेखक से पूछा, “मुंशीजी, यह क्या कर रहा है?” उनकी प्यार भरी आवाज सुनकर लेखक फफक पड़ता है। वे पुनः लेखक से प्रश्न करते हैं, “मुंशीजी रोते क्यों हो? ठीक से बोल, क्या हुआ है?” लेखक के द्वारा व्यक्त घटनाएँ सुनकर वे झाडू लेखक के हाथ से छीन दूर फेंक देते हैं। अपने लाडले की यह स्थिति देखकर वे आग-बबूला हो जाते हैं। वे तीखी आवाज में चीखने लगते हैं कि “कौन-सा मास्टर है वो, जो मेरे लड़के से झाडू लगवाता है?” उनकी चीख सुनकर हेडमास्टर सहित सारे मास्टर बाहर आ जाते हैं। हेडमास्टर लेखक के पिताजी को गाली देकर धमकाता है लेकिन उसकी धमकी का उनपर कोई असर नहीं होता है। आखिर पुत्र तो राजा का हो या रंक का, पिता के लिए तो एक समान ‘अपना जिगर का टुकड़ा’ ही होता है, उसकी बेइज्जती कैसे सही जा सकती है? यही बात लेखक के गरीब पिता पर भी लागू होती है। उन्होंने भी अपने पुत्र की दुर्दशा पर साहस और हौसले के साथ हेडमास्टर कालीराम का सामना किया।

 

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3. बचपन में लेखक के साथ जो कुछ हुआ, आप कल्पना करें कि आपके साथ भी हुआ हो-ऐसी स्थिति में आप अपने अनुभव और प्रतिक्रिया को अपनी भाषा में लिखिए।

उत्तर- बचपन में लेखक के साथ अनेक घटनाएँ घटती हैं जिनमें स्कूल की घटना सबसे ज्यादा मार्मिक एवं प्रभाव वाली हैं। लेखक जैसे ही स्कूल जाता है हेडमास्टर का नाम पूछने का तरीका बेढंगे की तरह है। ऊँची आवाज में बोलकर पहले किसी को भी धमकाया जाता है। हेडमास्टर उसी तरह नाम पूछता है। यह बेगार लेने का एक तरीका भी है। इस स्थिति में कहा जा सकता है कि व्यक्ति को कायदे और अदब बहुत जल्दी कायर बना देते हैं और वह भी बालक मन जिसमें अपार संभावनाएँ हैं। एक घृणित विकृत समाज से छूटने की छटपटाहट गहरा असर कर जाती है। बालक मन फिर मेधावी नहीं बन पाता। जब भय का संचार हो जाता है तो यह बात मन में घर कर ग्रन्थि का रूप ले लेती है। समय-समय पर वह भय किसी कार्य को रोकने का काम करता है। प्रतिभा का दमन करता है। लेखक जिस समाज का सदस्य है वह वर्ण पर आधारित है कर्म पर नहीं। अतः उसकी प्रतिभा को वर्ण का नाम देकर भी दबाया जाता है। कमजोर वर्ग के होने के कारण उससे बेगार भी लिए जाते हैं। सही-पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। यहाँ तक कि घर का सारा काम करने के बावजूद दो जून की रोटी तक नसीब नहीं होती। नसीब होता है तो सिर्फ जूठन। हम जिस समाज के सदस्य हैं। वह परंपरावादी है। और यहाँ वर्णव्यवस्था पर आधारित समाज होने के कारण उच्च वर्गों ने बैठे रहनेवाले काम अपने जिम्मे ले लिए हैं और निकृष्ट कार्य को दलितों के हाथों में। काम के बदले भी सही पारिश्रमिक नहीं देते। लेखक के जीवन में भाभी की बात का बहुत गहरा असर पड़ता है और इस दलदल से निकलने में प्रेरणा देती है।।

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4. किन बातों को सोचकर लेखक के भीतर काँटे जैसे उगने लगते हैं?

उत्तर- जूठन’ शीर्षक आत्मकथा के लेखक जब अपने बीते जीवन में किए जानेवाले काम और उस काम के बदले मिलने वाले मेहनताने को याद करता है, अपने काँटों भरे बीते दिनों को सोचता है, तो लेखक के भीतर काँटे जैसे उगने लगते हैं। दस से पन्द्रह मवेशियों की सेवा और गोबर की दुर्गन्ध हटाने के बदले केवल पाँच सेर अनाज, दो जानवरों के पीछे फसल तैयार होने के समय मिलता था। दोपहर में भोजन के तौर पर बची-खुची आटे में भूसी मिलाकर बनाई गई रोटी या फिर जूठन मिलती थी। शादी-ब्याह के समय बारात खा चुकने बे बाद जूठी पत्तलों से उनका निवाला चलता था। पत्तलों में पूरी के बचे खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी-बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर उनकी बाँछे खिल जाया करती थीं। पूरियों को सूखाकर रख लिया जाता था और बरसात के दिनों में इन्हें उबालकर नमक और बारीक मिर्च के साथ बड़े चाव से खाया जाता था। या फिर कभी-कभी गुड़ डालकर लुगदी जैसा बनाया जाता था, जो किसी अमृतपान से कम न्यारा न था।कैसा था लेखक का यह वीभत्स जीवन जिसमें भोजन के लिए जूठी पत्तलों का सहारा लेना पड़ता था। जिसे आम जनता छूना पसन्द नहीं करती थी, वही उनका निवाला था।

 

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5. दिन-रात मर खप कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र ‘जूठन’, फिर भी किसी को शिकायत नहीं। कोई शर्मिन्दगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं। ऐसा क्यों? सोचिए और उत्तर दीजिए।
उत्तर- जूठन’ शीर्षक आत्मकथा के माध्यम से लेखक ने अपने बचपन की संस्मरण एवं परिवार की गरीबी का वर्णन करते हुए इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जब समाज की चेतना मर जाती है, अमीरी और गरीबी का अंतर इतना बड़ा हो जाता है कि गरीब को जूठन भी नसीब नहीं हो, धन-लोलुपता घर कर जाती है, मनुष्य मात्र का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। सृष्टि की सबसे उत्तम कृति माने जानेवाले मनुष्य में मनुष्यत्व का अधोपतन हो जाता है, श्रम निरर्थक हो जाता है, उसे मनुष्यत्व की हानि पर कोई शर्मिंदगी नहीं होती है, कोई पश्चाताप नहीं रह जाता है। कुरीतियों के कारण अमीरों ने ऐसा बना दिया कि गरीबों की गरीबी कभी न जाए और अमीरों की अमीरी बनी रहे। यही नहीं, इस क्रूर समाज में काम के बदले जूठन तो नसीब हो जाती है परन्तु श्रम का मोल नहीं दिया जाता है। मिलती है सिर्फ गालियाँ। शोषण का एक चक्र है जिसके चलते निर्धनता बरकरार रहे। परन्तु जो निर्धन है, दलित है उसे जीना है संघर्ष करना है इसलिए उसे कोई शिकायत नहीं, कोई शर्मिंदगी, कोई पश्चाताप नहीं।

 

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6. सुरेन्द्र की बातों को सुनकर लेखक विचलित क्यों हो जाते हैं?।

उत्तर- सुरेन्द्र के द्वारा कहे गये वचन “भाभीजी, आपके हाथ का खाना तो बहुत जायकेदार है। हमारे घर में तो कोई भी ऐसा खाना नहीं बना सकता है” लेखक को विचलित कर देता है। सुरेन्द्र के दादी और पिता के जूठों पर ही लेखक का बचपन बीता था। उन जूठों की कीमत थी दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत और भन्ना देनेवाली गोबर की दुर्गन्ध और ऊपर से गालियाँ, धिक्कार। सुरेन्द्र की बड़ी बुआ शादी में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद सुरेन्द्र की दादाजी ने उनकी माँ के द्वारा एक पत्तल भोजन माँगे जाने पर कितना धिक्कारा था। उनकी औकात दिखाई थी, यह सब लेखक की स्मृतियों में किसी चित्रपट की भाँति पलटने लगा था। आज सुरेन्द्र उनके घर का भोजन कर रहा है और उसकी बड़ाई कर रहा है। सुरेन्द्र के द्वारा कहा वचन स्वतःस्फूर्त स्मृतियों में उभर आता है और लेखक को विचलित कर देता है।

 

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7. घर पहुँचने पर लेखक को देख उनकी माँ क्यों रो पड़ती है?

उत्तर- “जूठन” शीर्षक आत्मकथा में लेखक ने एक ऐसे प्रसंग का भी वर्णन किया है जो नहीं चाहते हुए भी उसे करना पड़ा। क्योंकि लेखक की माँ ने लेखक को उसके चाचा के साथ एक बैल की खाल उतारने में सहयोग के लिए पहली बार भेजा था। उनके चाचा लेखक से छूरी हाथ में देकर बैल की खाल उतरवाने में सहयोग लेता है। साथ ही खाल का बोझा भी आधे रास्ते में उसके सर पर दे देता है। गठरी का वजन लेखक के वजन से भारी होने के कारण उसे घर तक लाते-लाते लेखक की टाँग जवाब देने लगती है और उसे लगता था कि अब वह गिर पड़ेगा। सर से लेकर पाँव तक गंदगी से भरा हुआ था। कपड़ों पर खून के धब्बे साफ दिखाई पड़े रहे थे। इस हालत में घर पहुँचने पर उसकी माँ रो पड़ती है।

 

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8. व्याख्या करें-“कितने क्रूर समाज में रहे हैं हम, जहाँ श्रम का कोई मोल नहीं बल्कि निर्धनता को बरकरार रखने का षड्यंत्र ही था यह सब।’

उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध दलित आन्दोलन के नामवर लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि रचित ‘जूठन’ शीर्षक से लिया गया है। प्रस्तुत गद्यांश के माध्यम से लेखक ने माज की विद्रूपताओं पर कटाक्ष किया है। लेखक के परिवार द्वारा श्रमसाध्य कर्म किए जाने के बावजूद दो जून की रोटी भी नसीब न होती थी। रोटी की बात कौन कहे जूठन नसीब होना भी कम मुश्किल न था। विद्यालय का हेडमास्टर चूहड़े के बेटे को विद्यालय में पढ़ाना नहीं चाहता है, उसका खानदानी काम ही उसके लिए है। चूहड़े का बेटा है लेखक, इसलिए पत्तलों का जूठन ही उसका निवाला है। इस समाज में शोषण का तंत्र इतना मजबूत है कि शोषक बिना पैसे का काम करवाता है अर्थात् बेगार लेता है। श्रम साध्य के बदले मिलती हैं गालियाँ। लेखक अपनी आत्मकथा में समाज की क्रूरता को दिखाता है कि लेखक के गाँव में पशु मरता है तो उसे ले जाने का काम चूहड़ों का ही है। ये काम बिना मूल्य के। यह तंत्र का चक्र है जिसमें निर्धनता को बरकरार रखा जाए।

 

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9. लेखक की भाभी क्या कहती हैं? इसका उनके कथन का महत्त्व बताइए।

उत्तर- लेखक की भाभी लेखक की माँ से कहती है ‘इनसे ये न कराओ….भूखे रह लेंगे …. इन्हें इस गन्दगी में ना घसीटो ! लेखक के गाँव में ब्रह्मदेव तगा का बैल खेत से लौटते समय रास्ते में मर गया। माँ ने लेखक को उसकी खाल उतारने के लिए उसके चाचा के साथ आर्थिक निर्धनता के कारण भेज दिया। बैल की खाल उतारने भेजने पर भाभी यह कहती है। बालक मन पर इसका गहरा असर पड़ता है। छुरी के पकड़ते ही लेखक का हाथ काँपने लगते हैं। उसे लगता है कि वह दलदल में फंसा जा रहा है। उसने जिस यातना को भोगा है उसकी उसे आज तक याद है। उस बाल मन पर इसका गहरा असर पड़ता है। उसमें कई संभावनाएँ छिपी हुई है। उस निकृष्ट कार्य से छूटने की छटपटाहट है। इसलिए लेखक के जीवन में जो आज लेखक है यदि भाभी ने यह न कहा होता तो लेखक उससे निकल नहीं पाता। भाभी के शब्द उस कार्य से दूर जाने की प्रेरणा देते हैं जिससे बालक का स्वामित्व बना रहे। उस बालक में नयी संभावनाओं को खोलने में यह कथन मदद करता है।

 

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10. इस आत्मकथांश को पढ़ते हुए आपके मन में कैसे भाव आए? सबसे अधिक उद्वेलित करनेवाला अंश कौन है? अपनी टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- ओमप्रकाश वाल्मीकि का आत्मकथांश ‘जूठन’ में लेखक के बचपन में जो घटनाएँ स्कूल में घटी हैं वह व्यक्ति मन को अधिक उद्वेलित करने वाली हैं। भय के कारण प्रतिभा दमित हो जाती है। हेडमास्टर कालीराम द्वारा बालक ओमप्रकाश से दिनभर झाडू लगवाना, उसकी जाति के बारे में यह कहना कि उसका यह खानदानी काम है एक शिक्षक द्वारा शर्मनाक घटना है। गुरु का कार्य शिक्षा के साथ संस्कार भी देना है न कि उसका वर्ण विभेदीकरण कर उसे निम्न समझकर कार्य करवाना। यह सामंती मानसिकता का परिणाम है जहाँ निम्न वर्ग को निम्न ही रहने दिया जाए, उसे दबा कर रखा जाय, उसे निर्धन बनाकर रखा जाय। उससे काम के बदले पैसा न देकर बैगार लिया जाए। यह समाज के ऊँचे तबके की सोची-समझी साजिश है। बालक मन में अपार संभावनाएँ छुपी होती है। उन्हें जिस तरफ मोड़ा जाता है वह उस तरफ मुड़ जाता है। बच्चे को क्लास करने के बदले झाडू दिलवाना यह किस समाज की सोच है? यहाँ शिक्षक सामंती मानसिकता के प्रतीक के रूप में है जो सामंत है। यह हमारे सड़े हुए समाज की सच्चाई है।

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