
कवि-परिचय
कवि का नाम – तुलसीदास
जन्म : 1543 निधन : 1623
जन्मस्थान : राजापुर, बाँदा, उत्तरप्रदेश
मूल-नाम : रामबोला
माता-पिता : हुलसी और आत्माराम दुबे
दीक्षा गुरु : नरहरि दास, सुकरखेत के वासी, गुरू ने विद्यारंभ करवाया।
शिक्षा गुरु : शेष सनातन, काशी के विद्वान।
शिक्षा : चारों वेद, षड्दर्शन, इतिहास, पुराण, स्मृतियाँ, काव्य आदि की शिक्षा काशी में पंद्रह वर्षों तक प्राप्त की।
स्थाई निवास : काशी
मित्र : अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराजा मानसिंह, नाभादास, टोडरमल, मधुसूदन सरस्वती,
कृतियाँ : रामलला नहछू, वैराग्य संदीपिनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामज्ञाप्रश्न, दोहावली कवितावली, गीतावली, श्री कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के मध्यकालीन उत्तर भारत भक्ति काव्य की सगुण भक्तिधारा की रामभक्ति शाखा के प्रधान कवि है।
( Tulsidas saransh
पद
कबहुँक अंब अवसर पाइ ।
मेरिओ सुधि द्याइबी कछु करून-कथा चलाइ ।।प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका के सीता स्तुति खंड से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास सीता को माँ कहकर संबोधित करते हुए कहते है कि हे माँ कभी उचित अवसर पा के आप प्रभु से कोई कारुणिक प्रसंग छेड़ कर मेरी भी याद प्रभु को दिला देना।
( Tulsidas saransh
दीन, सब अंगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका के सीता स्तुति खंड से ली गई है जिसमें महाकवि तुलसीदास सीता को माँ कहकर संबोधित करते हए कहते है कि हे माँ प्रभू को कहना कि आपकी दासी का दास बहत ही दीन दशा में हैं। उसके अंग भी अब ठीक से काम नहीं कर रहे है। वह बहत दुर्बल है तथा स्वच्छ भी नहीं रहता। वह पूर्णतः पापों में लिप्त है और आपके नाम का स्मरण करता हुआ किसी प्रकार से अपनी उदर पूर्ति करता है।
( Tulsidas saransh
बझिहैं “सो है कौन” कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत रामकृपालु के मेरी बिगारिऔ बनि जाइ।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका के सीता स्तुति खंड से ली गई है जिसमें महाकवि तुलसीदास सीता को माँ कहकर संबोधित करते हए कहते है कि हे माँ जब आप मेरी बात प्रभु से करेंगी तो वो पूछेंगे कि आप किसकी बात कर रही है। आप प्रभू को मेरा नाम और मेरी दशा बता देना क्योंकि अगर मेरी स्थिति प्रभू को पता चल गई तो मेरे बिगड़े हुए काम भी बन जाएंगे।
( Tulsidas saransh
जानकी जगजननि जन की किए बचन-सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव-नाथ-गुन-गन गाइ।।
(2)
दवार हौं भोर ही को आज।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हए कहते है कि हे प्रभ ! मैं आपके द्वार पर भोर से(सुबह से) ही बैठा हूँ और भीख मांगने वाले की तरह रिरिहा(गिरगिड़ा) रहा हूँ । हे प्रभु ! मुझे आपसे बहत कुछ नहीं चाहिए मैं आपकी कृपा का एक कौर(निवाला) ही मांग रहा हूँ।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका के सीता स्तुति खंड से ली गई है जिसमें महाकवि तुलसीदास सीता को माँ कहकर संबोधित करते हए कहते है कि हे माँ ! वैसे तो आप पूरे संसार की माँ है। आप अपनी कृपा पूरे संसार पर बरसाती है लेकिन इसके बावजूद अगर आप मेरी सहायता करेंगी तो मैं आपके नाथ का गुण-गान करके भवसागर को पार कर जाऊंगा।
कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभांति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊंच, जैसी कोढ़ में की खाजु।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमें महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हए कहते है कि हे प्रभू ! इस कलयुग मे भयंकर अकाल पड़ा है और जो भी मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग है वो पापों से भरा हुआ है। प्रत्येक चीज मे दुर्व्यस्थता ही दिखाई पड़ रही है । हे प्रभु मैं एक नीच जीव हैं जिसकी अभिलाषाएं ऊंची है जो मुझे उसी प्रकार कष्ट देती है जैसे कोंढ़ में खाज दुख दिया करती है। अतः हे प्रभु मेरी विनती स्वीकार करें और मुझे अपनी कृपा का मात्र एक निवाला प्रदान करें।
( Tulsidas saransh
हहरि हिय में सदय बूझयो जाइ साधु-समाजु।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कहयो कोसलराजु।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हए कहते है कि हे प्रभु ! हृदय में अत्यंत पीड़ा के साथ मैंने दयाशील साधू समाज से यह बात पूछा कि क्या मेरे जैसे पापी, दरिद्र के लिए कोई शरण है और उन्होने कृपा के सागर श्रीराम का नाम बताया।
( Tulsidas saransh
दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाज ।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हए कहते है कि हे कृपासिंधु ! आपके अतिरिक्त कौन मेरी दीनता और दरिद्रता को दूर कर सकता है। हे दशरथ पुत्र श्रीराम ! आपके द्वारा ही मेरी बात बन सकती है।
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ विनय पत्रिका से ली गई है जिसमे महाकवि तुलसीदास अपनी दीन-हीन अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि हे कृपासिन्धु ! हे गरीबों का दुख दूर करने वाले मैं जन्म से ही भूखा भिखारी हैं और आप दीनों के नाथ है। तुलसी जैसा भूखा भक्त आपके द्वार पर बैठा है मुझे अपनी भक्तिरूपी पिलाकर मेरे ज्ञानरूपी भूख को शांत करें।