छप्‍पय सारांश ( chhappy saransh )

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कवि-परिचय
लेखक- नाभादास
जन्म : 1570-1600(अनुमानित)
जन्मस्थान : दक्षिण भारत में
माता-पिता : शैशव में पिता की मृत्यु और अकाल के कारण माता के साथ जयपुर (राजस्थान) में प्रवास
दीक्षा गुरु : स्वामी अग्रदास (अग्रअली)
शिक्षा :- गुरु की देख-रेख में स्वाध्याय, सत्संग द्वारा ज्ञानार्जन

कृतियाँ : भक्तमाल, अष्टयाम (ब्रजभाषा गद्य में)

गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन – वैष्णव संप्रदाय मे दीक्षित

कबीर

भगति विमुख जे धर्म सो सब अधर्म करि गाए।
योग यज्ञ व्रत दान भजन बिन तुच्छ दिखाए।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से उद्धृत है जिसके माध्यम से नाभदास ने कबीरवाणी की विशेषता पर प्रकाश डाला है

 

 

कवि कहते है कि जो व्यक्ति भक्ति से विमुख हो जाता है वह अधर्म में लिप्त व्यक्तियों की तरह कार्य करता है | कबीर ने भक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी क्रियाओं जैसे योग, यज्ञ, व्रत, दान, भजन सभी को तुच्छ कहा है।

हिंदू तुरक प्रमान रमैनी सबदी साखी।
पक्षपात नहिं बचन सबहिके हितकी भाषी।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से उद्धृत है जिसके माध्यम से नाभदास ने कबीरवाणी की विशेषता पर प्रकाश डाला है।

नाभादास कहते है कि कबीर ने हमेशा हिन्दू और मुसलमान को प्रमाण और सिद्धांत की बात कही है | कबीर ने कभी भी पक्षपात नहीं किया है उन्होंने हमेशा सबके हित की बात कही है।

आरूढ़ दशा ह्वै जगत पै, मुख देखी नाही भ।
कबीर कानि राखी नहीं, वर्णोश्रम षट दर्शनी।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास दवारा रचित भक्तमाल से उदधत है जिसके माध्यम से नाभदास ने कबीरवाणी की विशेषता पर प्रकाश डाला है।

नाभादास कहते है कि कबीर ने कभी भी मुख देखी बात नहीं कही अर्थात कभी भी पक्षपातपूर्ण बात नहीं कही। कबीर ने कभी भी कही सुनाई बातों को महत्व नहीं दिया। उन्होंने हमेशा आंखों देखी बातों को ही कहा है। कबीर ने चार वर्ण, चार आश्रम और छ: दर्शन किसी की आनि-कानी नहीं की अर्थात किसी को भी महत्व नहीं दिया।

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सूरदास

उक्ति चौज अनुप्रास वर्ण अस्थिति अतिभारी।
वचन प्रीति निर्वेही अर्थ अद्भुत तुकधारी।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से उदधृत है जिसके माध्यम से नाभदास ने सूरदास के विशेषताओं को बताया है। नाभादास कहते हैं कि सुरदास कि कविताएं युक्ति, चमत्कार अनुप्रास वर्ण से भरी हई होती है। सूरदास की कविताएँ लयबद्ध और संगीतात्मक होती है। सूरदास अपनी कविता की शुरुआत जिन प्रेम भरी वचनों से करते है उसका अंत भी उन्ही वचनों से करते है।

पद प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी।
जन्म कर्म गुन रूप सबहि रसना परकासी।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से उद्धृत है जिसके माध्यम से नाभदास ने सूरदास के विशेषताओं को बताया है। नाभदास कहते है कि सुरदास की दृष्टि दिव्य है। सूरदास ने अपनी कविताओं मे श्री कृष्ण की लीला का वर्णन किया है। सूरदास ने प्रभु के जन्म कर्म गुण रूप सभी को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर अपने वचनों से प्रकाशित किया

विमल बुद्धि हो तासुकी, जो यह गुन श्रवननि धरै।
सूर कवित सुनि कौन कवि, जो नहिं शिरचालन करै।।

प्रस्तुत पंक्तियाँ नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल से उद्धृत है जिसके माध्यम से नाभदास ने सूरदास के विशेषताओं को बताया है। नाभदास कहते है कि जो भी व्यक्ति सूरदास द्वारा कही गई भगवान के गुणों को सुनता है उसकी बुद्धि विमल हो जाती है। नाभादास कहते हैं कि ऐसा कोई कवि नहीं हैं जो सूरदास की कविताओं को सुनकर सिर चालन ना करें अर्थात उनकी बातों में हामी ना भरें।

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