Bihar Board Class 9 Hindi Bharat Ka Puratan Vidyapith Nalanda Chapter 2

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Bihar Board Class 9 Hindi Solutions गद्य Chapter 2 भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा

Text Book Questions and Answers

Class 9 Hindi Bharat Ka Puratan Vidyapith Nalanda
प्रश्न 1.
“नालंदा की वाणी एशिया महाद्वीप में पर्वत और समुद्रों के उस पार तक फैल गई थी।” इस वाक्य का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
नालंदा में ज्ञान-साधना के सुरभित पुष्प खिले हुए थे। एशिया महाद्वीप के विस्तृत भू-भाग में विद्या-संबंधी सूत्र भी उसके साथ जुड़े हुए थे। ज्ञान के क्षेत्र में देश और जातियों के भेद लुप्त हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों के कारण उपर्युक्त बातें कही गयीं हैं।
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प्रश्न 2.
मगध की प्राचीन राजधानी का नाम क्या था और वह कहाँ अवस्थित थी?
उत्तर-
मगध की प्राचीन राजधानी का नाम राजगृह था और वह पाँच पर्वतों के । मध्य में बसी हुई गिरिब्रज या राजगृह नाम से प्रसिद्ध थी।
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प्रश्न 3.
बुद्ध के समय नालंदा में क्या था?
उत्तर-
बुद्ध के समय नालंदा के गाँव में प्रवाजिकों का आम्रवन था।
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 प्रश्न 4.
महावीर और मेखलिपुत्त गोसाल की भेंट किस उपग्राम में हुई थी?
उत्तर-
जैन-ग्रंथों के अनुसार नालंदा के उपग्राम वाहिरिक में महावीर और मेखलिपुत्र की भेंट हुई थी।
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 प्रश्न 5.
महावीर ने नालंदा में कितने दिनों का वर्षावास किया था? ‘
उत्तर-
महावीर ने नालंदा में चौदह वर्षावास किया था।
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प्रश्न 6.
तारानाथ कौन थे? उन्होंने नालंदा को किसकी जन्मभूमि बताया है?
उत्तर-
तिब्बत के विद्वान इतिहास लेखक लामा तारानाथ तिब्बत के निवासी थे और उनके अनुसार नालंदा सारिपुत्र की जन्मभूमि थी।
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प्रश्न 7.
एक जीवंत विद्यापीठ के रूप में नालंदा कब विकसित हुआ?
उत्तर-
नालंदा की प्राचीनता की अनुश्रुति बुद्ध, अशोक दोनों से संबंधित है; किन्तु एक प्राणवंत विद्यापीठ के रूप में उसके जीवन का आरंभ लगभग गुप्तकाल में हुआ।
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प्रश्न 8.
फाह्यान कौन थे? वे नालंदा कब आए थे? ।
उत्तर-
फाह्यान चीनी यात्री थे जो चौथी शती में नालंदा आये थे। उन्होंने सारिपुत्र के जन्म और परिनिर्वाण स्थान पर निर्मित स्तूप के दर्शन किए।
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प्रश्न 9.
हर्षवर्दन के समय में कौन चीनी यात्री भारत आया था. उस समय नालंदा की दशा क्या थी?
उत्तर-
हर्षवर्द्धन के समय सातवीं सदी में युवानचांग भारत आए थे। उस समय नालंदा अपनी उन्नति के शिखर पर था।
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प्रश्न 10.
नालंदा के नामकरण के बारे में किस चीनी यात्री ने किस ग्रंथ के आधार पर क्या बताया है?
उत्तर-
चीनी यात्री युवानयांग ने एक जातक कहानी का हवाला देते हुए बताया है कि नालंदा का यह नाम इसलिए पड़ा था कि यहाँ अपने पूर्व-जन्म में उत्पन्न भगवान बुद्ध को तृप्ति नहीं होती थी। (न-अल-दा)
प्रश्न 11.
नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म कैसे हुआ?
उत्तर-
नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म जनता के उदार दान से हुआ। कहा जाता है कि इसका आरंभ पाँच सौ व्यापारियों के दान से हुआ था, जिन्होंने अपने धन से भूमि खरीदकर बुद्ध को दान में दी थी।
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प्रश्न 12.
यशोवर्मन के शिलालेख में वर्णित नालंदा का अपने शब्दों में चित्रण कीजिए।
उत्तर-
आठवीं सदी के यशोवर्मन के शिलालेख में नालंदा का बड़ा भव्य वर्णन किया गया है। यहाँ के विहारों की पंक्तियों के ऊँचे-ऊँचे शिखर आकाश में मेघों को छूते थे। उनके चारों ओर नीले जल से भरे हुए सरोवर थे, जिनमें सुनहरे और लाल कमल तैरते थे, बीच-बीच में सघन आम्रकुंजों की छाया थी। यहाँ के भवनों के शिल्प और स्थापत्य को देखकर आश्चर्य होता था। उनमें अनेक प्रकार के अलंकरण और सुन्दर मूर्तियाँ थीं। यों तो भारत वर्ष में अनेक संधाराम हैं, किन्तु नालंदा उन सबमें अद्वितीय है।
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प्रश्न 13.
इत्सिंग कौन था? उसने नालंदा के बारे में क्या बताया है?
उत्तर-
इरिसंग, चीनी यात्री था। उसके समय में नालंदा विहार में तीन सौ बड़े कमरे और आठ मंडप थे। पुरातत्व विभाग की खुदाई में नालंदा विश्वविद्यालय के जो अवशेष यहाँ प्राप्त हुए हैं उनसे इन वर्णनों की सच्चाई प्रकट होती है।
प्रश्न 14.
विदेशों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय के संबंध का कोई एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर-
विदेशों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय का जो संबंध था, उसका स्मारक एक ताम्रपत्र खुदाई में मिला है। इससे ज्ञात होता है कि सुवर्ण दीप (सुमात्रा) के शासक शैलेन्द्र सम्राट श्री बालपुत्रदेव ने मगध के सम्राट देवपालदेव के पास अपना दूत भेजकर यह प्रार्थना की कि उनकी ओर से पाँच सौ गाँवों का दान नालंदा विश्वविद्यालय को दिया जाय। ताम्रपत्र के अनुसार नालंदा के गुणों से आकृष्ट होकर यवद्वीप के सम्राट बालपुत्र ने भगवान बुद्ध के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए नालंदा में एक बड़े विहार का निर्माण करवाया।
प्रश्न 15.
नालंदा में किन पांच विषयों की शिक्षा अनिवार्य थी?
उत्तर-
नालंदा का शिक्षाक्रम बड़ी व्यावहारिक बुद्धि से तैयार किया गया था। मूल रूप में पाँच विषयों की शिक्षा वहाँ अनिवार्य थी-
  1. शब्द विद्या या व्याकरण, जिससे भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो सके।
  2. हेतु विद्या या तर्कशास्त्र, जिससे विद्यार्थी अपनी बुद्धि की कसौटी पर प्रत्येक बात को परख सके।
  3. चिकित्सा विद्या जिसे सीखकर छात्र स्वयं स्वस्थ रह सकें एवं दूसरों को भी निरोग बना सकें।
  4. शिल्प विद्या, एक न एक शिल्प को सीखना यहाँ अनिवार्य था जिससे छात्रों में व्यवहारिक और आर्थिक जीवन की स्वतंत्रता आ सके।
  5. इसके अतिरिक्त अपनी रुचि के अनुसार लोग धर्म और दर्शन का अध्ययन करते थे।
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प्रश्न 16.
नालंदा के कुछ प्रसिद्ध विद्वानों की सूची बनाइए।
उत्तर-
जिस समय धर्मपाल इस संस्था के कुलपति थे उस समय शीलभद्र, ज्ञानचंद, प्रभामित्र, स्थिरमति, गुणमति आदि अन्य आचार्य युवानचांग के समकालीन थे।
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प्रश्न 17.
शीलभद्र से युवानचांग (ह्वेनसांग) की क्या बातचीत हुई?
उत्तर-
जब युवानचांग नालंदा से विदा होने लगे, तब आचार्य शीलभद्र एवं अन्य भिक्षुओं ने उनसे यहाँ रह जाने के लिए अनुरोध किया। युवानचांग ने उत्तर में यह वचन कहे-“यह देश बुद्ध की जन्मभूमि है, इसके प्रति प्रेम न हो सकना असंभव है। लेकिन यहाँ आने का मेरा उद्देश्य यही था कि अपने भाइयों के हित के लिए मैं भगवान के महान धर्म की खोज करूँ। मेरा यहाँ आना बहुत ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है। अब यहाँ से वापस जाकर मेरी इच्छा है कि जो मैंने पढा-सना है, उसे दूसरों के हितार्थ बताऊँ और अनुवाद रूप में लाऊँ, जिसके फलस्वरूप अन्य मनुष्य भी आपके प्रति उसी प्रकार कृतज्ञ हो सकें जिस प्रकार मैं हुआ हूँ।” इस उत्तर से शीलभद्र को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा-“यह उदात्त विचार तो बोधिसत्वों जैसे हैं। मेरा हृदय भी तुम्हारी सदाशाओं का समर्थन करता है।”
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प्रश्न 18.
विदेशों में ज्ञान-प्रसार के क्षेत्र में नालंदा के विद्वानों के प्रयासों के विवरण दीजिए।
उत्तर-
पहले तो तिब्बत के प्रसिद्ध सम्राट स्त्रोंग छन गप्पो (630 ई.) ने अपने .. देश में भारती लिपि और ज्ञान का प्रचार करने के लिए अपने यहाँ के विद्वान थोन्मिसम्मोट को नालंदा भेजा, जिसने आचार्य देवविदसिंह के चरणों में बैठकर बौद्ध और ब्राह्मण साहित्य की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद आठवीं सदी में नालंदा के कुलपति आचार्य शांतिरक्षित तिब्बती सम्राट के आमंत्रण पर उस देश में गए। नालंदा के तंत्र विद्या के प्रमुख आचार्य कमनशील भी तिब्बत गए थे। इन विद्वानों में आचार्य : पद्मसंभव (749 ई.) और दीपशंकर श्री ज्ञान अतिश (980 ई.) के नाम उल्लेखनीय हैं।
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प्रश्न 19.
ज्ञानदान की विशेषता क्या है?
उत्तर-
ज्ञान के क्षेत्र में जो दान दिया जाता है वह सीमा रहित और अनंत होता है, न उसके बाँटने वालों को तृप्ति होती है और न उसे लेने वालों को। यही ज्ञानदान की विशेषता कही गई है।
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
1. नालंदा हमारे इतिहास में अत्यंत आकर्षक नाम है जिसके चारों ओर न केवल भारतीय ज्ञान-साधना के सुरभित पुष्प खिले हैं, अपितु किसी समय एशिया महाद्वीप के विस्तृत भूभाग के विद्या-संबंधी सूत्र भी उसके साथ जुड़े हुए थे। ज्ञान के क्षेत्र में देश और जातियों के भेद लुप्त हो जाते हैं। नालंदा इसका उज्जवल दृष्टांत था। नालंदा की वाणी एशिया महाद्वीप में पर्वत और समुद्रों के उस पार तक फैल गई थी। लगभग छह सौ वर्षों तक नालंदा एशिया का चैतन्य-केंद्र बना रहा।
(क) इस गद्यांश के पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) नालंदा भारतीय इतिहास में क्यों आकर्षक नाम रहा है? उसकी क्या विशेषता रही है?
(ग) नालंदा किसका ज्वलंत दृष्टांत रहा है?
(घ) नालंदा की वाणी के विस्तार और प्रभाव की चर्चा करें।
(ङ) इस गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद।
(ख) नालंदा भारतीय इतिहास में एक आकर्षक नाम रहा है। इसकी यह विशेषता रही है कि इसके चारों ओर न केवल भारतीय ज्ञान साधना का सुबास छाया रहा है, अपितु, उस समय एशिया महादेश के विस्तृत भू-भाग के विद्या के सूत्र यहीं से संचालित और प्रभावित थे। इन्हीं कारणों से नालंदा भारतीय इतिहास में एक आकर्षक नाम रहा है।
(ग) नालंदा इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण रहा है कि ज्ञान की दृष्टि में देश और जाति के भेद लुप्त हो जाते हैं, अर्थात् दोनों में कोई पार्थक्य नहीं रह जाता है और दोनों की संकीर्णता मिट जाती है।
(घ) नालंदा के ज्ञान और शिक्षा की वाणी इस भारत देश की सीमा के अंतर्गत के क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं थी, अपितु वह इस देश से जुड़े पर्वतों और समुद्रों की सीमाओं को पारकर संपूर्ण एशिया महादेश के व्यापक क्षेत्र में फैली हुई थी। इसीलिए सैकड़ों वर्षों तक नालंदा एशिया की समग्र चेतना के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित रहा है।
(ङ) नालंदा का इतिहास और नाम भारतीय इतिहास के आकर्षण का एक स्वर्णिम पृष्ठ रहा है। यह भारतीय ज्ञान-साधना का उस समय का प्रधान केंद्र तो रहा ही है, इसके अतिरिक्त यह एशिया महाद्वीप के विस्तृत भूभाग में फैले विद्या-सूत्र का संचालक भी रहा है। इसके द्वारा फैलाए गए व्यापक ज्ञान-संदेश ने देश और जाति के अंतर और भेद को मिटा दिया था। यही कारण था कि नालंदा की ज्ञान की वाणी भारत देश की सीमा के पार एशिया महादेश के विस्तृत भूभाग तक फैल गई थी और इस रूप में नालंदा उन दिनों छह सौ वर्षों तक महाद्वीप की व्यापक चेतना का केंद्र (चैतन्य-केंद्र) बना हुआ था।
2. नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म जनता के उदार दान से हुआ। कहा जाता है कि इसका आरंभ पाँच सौ व्यापारियों के दान से हुआ था, जिन्होंने अपने धन से भूमि खरीदकर बुद्ध को दान में दी थी। युवानचांग के समय में नालंदा विश्वविद्यालय का रूप धारण कर चुका था। यहाँ उस समय छह बड़े विहार थे। आठवीं सदी के यशोवर्धन के शिलालेख में नालंदा का बड़ा भव्य वर्णन किया गया है। यहाँ के विहारों की पंक्तियों के ऊँचे-ऊँचे शिखर आकाश में मेघों को छूते थे। उनके चारों “ ओर नीले जल से भरे हुए सरोवर थे, जिनमें सुनहरे और लाल कमल – तैरते थे। बीच-बीच में सघन आम्रकुंजों की छाया थी। यहाँ के भवनों के शिल्प और स्थापत्य को देखकर आश्चर्य होता था। उनमें अनेक प्रकार के अलंकरण और सुंदर मूर्तियाँ थीं।
(क) गद्यांश के पाठ और इसके लेखक के नाम लिखें।
(ख) नालंदा का जन्म और आरंभ कब और कैसे हुआ था?
(ग) यशोवर्मन के शिलालेख में नालंदा का क्या वर्णन मिलता है?
(घ) उस समय यहाँ के भवनों की क्या विशेषताएँ थीं?
(ङ) इस गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन-विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।
(ख) नालंदा का जन्म सामान्य जनता द्वारा दिए गए उदार दान से हुआ था। इसके जन्म के लिए आरंभ में पाँच सौ व्यापारियों ने उदारतापूर्वक दान की राशि दी थी। उसी दान की राशि से उनलोगों ने जमीन खरीदी और उसे खरीदकर भगवान बुद्ध को दान में दे दिया था। उसी जमीन पर नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म शिलान्यास के रूप में हुआ जो कालक्रम में विश्वविश्रुत विश्वविद्यालय की गरिमा से विभूषित हुआ।
(ग) आठवीं सदी के यशोवर्मन के शिलालेख में नालंदा का बड़ा भव्य वर्णन मिलता है। उस वर्णन के अनुसार नालंदा में उस समय ऊँचे-ऊँचे गगनचुंबी शिखरों वाले पंक्तिबद्ध कई विहार बने हुए थे। वे सभी विहार चारों ओर से लाल
और सुनहले कमलों से सुशोभित सरोवरों से घिरे हुए थे। उन विहारों के बीच-बीच में आम्रकुंज शोभायमान थे जिनकी छाया बड़ी मनोरम थी।
(घ) उस समय वहाँ के निर्मित भवनों की विशेषताएँ अनुपम थीं। उन भवनों का स्थापत्य और शिल्प-सौंदर्य विलक्षण और आश्चर्यजनक था। उसके विकसित स्थापत्य और सौंदर्य को देखकर सभी लोग आश्चर्य और विस्मय-विमग्ध हो जाते थे।
(ङ) इस गद्यांश में लेखक ने बताया है कि नालंदा का जन्म सामान्य जनों की उदार दान-राशि से हुआ है। उस प्रारंभिक समय में पाँच सौ व्यापारियों ने अपने धन से कुछ जमीन खरीदकर नालंदा के निर्माण के लिए श्रद्धा से भगवान बुद्ध को अर्पित की। बाद के वर्षों में सम्राट हर्षवर्धन के समय युवान-चांग के भारत आगमन-काल में नालंदा ने विश्वविद्यालय का रूप धारण किया। आठवीं सदी में यशोवर्मन के शिलालेख में नालंदा के प्रांगण में कई गगनचुंबी शिखरोंवाले तथा सुनहले और लाल कमलों से शोभित सरोवरों से चारों ओर से घिरे विहार निर्मित थे। स्थापत्य और शिल्प की दृष्टि से उस समय उन भवनों की विशेषता आश्चर्यजनक थी।
3. आर्थिक दृष्टि से नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य और विद्यार्थी
निश्चित बना दिए गए थे। भूमि और भवनों के दान के अतिरिक्त नित्यप्रति के व्यय के लिए सौ गाँवों की आय अक्षयनिधि के रूप में समर्पित की गई थी। इत्सिंग के समय में यह संख्या बढ़कर दो सौ गाँवों तक पहुँच गई थी। उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल इन तीनों राज्यों ने नालंदा के निर्माण और अर्थव्यवस्था में पर्याप्त भाग लिया। बंगाल के महाराज धर्मपाल देव और देवपाल देव के समय के ताम्रपत्र और मूर्तियाँ नालंदा की खुदाई में प्राप्त हुई हैं।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का आर्थिक स्रोत और
व्यवस्था क्या और कैसे थी?
(ग) उस समय किन प्रदेशों ने नालंदा विश्वविद्यालय को किस रूप में क्या सहयोग किया? ।
(घ) नालंदा की खुदाई में क्या प्राप्त हुई है?
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) उस समय नालंदा विश्वविद्यालय के आर्थिक स्रोत का साधन वहाँ के गाँवों में बसे लोगों द्वारा दिया गया धन था। उस विद्यापीठ के दैनिक और अन्य खर्चों के लिए सौ गाँवों की आय अक्षय निधि के रूप में समर्पित की जाती थी। इसके अतिरिक्त लोगों द्वारा दान के रूप में भूमि और भवन भी दिए जाते थे। आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए वहाँ के आचार्यों एवं विद्यार्थियों को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता था।
(ग) उस समय उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल इन तीन प्रदेशों ने नालंदा विद्यापीठ को काफी आर्थिक सहयोग किया। उनका यह सहयोग निर्माण तथा आर्थिक व्यवस्थापन के क्षेत्र में विशेष रूप से हुआ।
(घ) नालंदा की खुदाई में बंगाल के महाराज धर्मपालदेव और देवपाल देव के शासनकाल के ताम्रपत्र और मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं।
4. विदेशों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय का जो संबंध था, उसका स्मारक एक ताम्रपत्र नालंदा की खुदाई में मिला है। इससे ज्ञात होता है कि सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) के शासक शैलेंद्र सम्राट श्री वालपुत्रदेव ने मगध के सम्राट देवपालदेव के पास अपना दूत भेजकर यह प्रार्थना की कि उनकी ओर से पाँच गाँवों का दान नालंदा विश्वविद्यालय को दिया जाए। ताम्रपत्र के अनुसार नालंदा के गुणों से आकृष्ट होकर यवद्वीप के सम्राट बालपुत्र ने भगवान बुद्ध के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए नालंदा में एक बड़े विहार का निर्माण कराया। उन पाँच गाँवों की आय प्रज्ञा, पारमिता आदि का पूजन, चतुर्दिश, अर्थात अंतरराष्ट्रीय आर्य भिक्षु संघ के चीवर, भोजन, चिकित्सा, शयनासन आदि का व्यय, धार्मिक ग्रंथों की प्रतिलिपि एवं विहार की टूट-फूट की मरम्मत आदि के लिए खर्च की जाती थी।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) विदेशों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय के कैसे संबंध थे? उसे कुछ उदाहरण देकर बताएँ।
(ग) सुमात्रा और यवद्वीप के सम्राटों द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय को दिए गए सहयोगों की चर्चा करें।
(घ) पाँच गाँवों से प्राप्त दान के धन किन कार्यों में खर्च किए जाते थे?
(ङ) नालंदा विश्वविद्यालय की खुदाई में मिले ताम्रपत्र से हमें क्या जानकारी प्राप्त हुई है?
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ।
(ख) उस समय विदेशों के साथ नालंदा विश्वविः य के संबंध बड़े अच्छे थे। विदेश के देशों से इस विश्वविद्यालय को बिना माँग र सहयोग मिलते थे। इस दिशा में उदाहरण के रूप में सुमात्रा (स्वर्णद्वीप) के राजा और यवद्वीप के सम्राट द्वारा श्रद्धा और स्वेच्छा से दिए गए उदार दान की चर्चा की जा सकती है।
(ग) सुमात्रा और यवद्वीप के सम्राट ने स्वेच्छया श्रद्धा के साथ इस विश्वविद्यालय को दान दिए। सुमात्रा के सम्राट श्री बालपुत्रदेव ने श्रद्धा और निवेदन के साथ अपने पाँच गाँवों की आमदनी अर्पित की थी और यवद्वीप के सम्राट बालपुत्र ने भगवान बुद्ध के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए नालंदा में एक बड़े विहार का निर्माण कराया था।
(घ) सुमात्रा के शासक श्री बालपुत्रदेव द्वारा प्रदत्त पाँच गाँवों की आमदनी प्रज्ञा, पारमिता आदि के पूजन, चतुर्दिश, अर्थात् अंतरराष्ट्रीय आर्य भिक्षु संघ के चीवर, भोजन, चिकित्सा, शयनासन आदि के व्यय, धार्मिक ग्रंथों की प्रतिलिपि एवं बिहार के भवनों की मरम्मत आदि में खर्च की जाती थी।
(ङ) नालंदा विश्वविद्यालय की खुदाई से मिले ताम्रपत्र से हमें यह जानकारी मिलती है कि सुमात्रा के शासक श्री बालपुत्रदेव ने मगध के तत्कालीन सम्राट देवपालदेव से यह प्रार्थना की थी कि उनके पाँच गाँवों की आमदनी नालंदा विश्वविद्यालय की सेवा में लगाई जाए। इसी तरह यवपुत्र के सम्राट बालपुत्र ने नालंदा के गुणों से आकृष्ट होकर भगवान बुद्ध के प्रति अपनी भक्ति-भावना प्रकट कर नालंदा में एक बड़े विहार का निर्माण कराया था।
5. नालंदा का शिक्षाक्रम बड़ी व्यावहारिक बुद्धि से तैयार किया गया था।
उसे पढ़कर विद्यार्थी दैनिक जीवन में अधिकाधिक सफलता प्राप्त करते थे। मूल रूप में पाँच लिपियों की शिक्षा वहाँ अनिवार्य थी। शब्द विद्या या व्याकरण जिससे भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो सके, हेतु विद्या या तर्कशास्त्र, जिससे विद्यार्थी अपनी बुद्धि की कसौटी पर प्रत्येक बात को परख सके, चिकित्सा विद्या, जिसे सीखकर छात्र स्वयं स्वस्थ रह सकें एवं दूसरों को भी नीरोग बना सके तथा शिल्प विद्या। एक-न-एक शिल्प को वहाँ सीखना अनिवार्य था जिसके द्वारा छात्रों में व्यावहारिक और आर्थिक जीवन की स्वतंत्रता आ सके। इन चारों के अतिरिक्त अपनी रुचि के अनुसार लोग धर्म और दर्शन का अध्ययन करते थे।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) नालंदा का शिक्षाक्रम बड़ी व्यावहारिक बुद्धि से तैयार किया गया था। इसपर प्रकाश डालें।
(ग) नालंदा के शिक्षाक्रम में किन विषयों की पढ़ाई अनिवार्य रूप से शामिल थी?
(घ) व्याकरण, तर्कशास्त्र तथा चिकित्सा विद्या की पढ़ाई विद्यार्थियों के लिए किस रूप में उपयोगी थी?
(ङ) विद्यार्थियों के लिए शिल्प विद्या के अध्ययन की क्या उपयोगिता
थी?
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरात्तन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।
(ख) नालंदा के पाठयक्रम में उन्हीं विषयों का अध्ययन आवश्यक बनाया गया था जो विषय विद्यार्थियों के व्यवहारिक जीवन में विशेष उपयोगी थे। इसीलिए उन विषयों में भाषा के उपयोगी ज्ञान के लिए व्याकरण, प्रत्येक बात को अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए तर्कशास्त्र, स्वयं की और दूसरे को स्वस्थ बनाए रखने के लिए चिकित्सा विद्या की पढ़ाई होती थी। ये सभी विषय व्यवहारिक जीवन के ज्ञान से जुड़े विषय रहे हैं। इसके साथ-साथ व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी शिल्प विद्या तथा धर्म और दर्शन के विषय भी उस पाठ्यक्रम में शामिल थे। लेखक ने इसीलिए कहा कि नालंदा का शिक्षाक्रम व्यावहारिक बुद्धि से तैयार किया गया था।
(ग) नालंदा के शिक्षाक्रम में इन नियमों की पढ़ाई अनिवार्य विषय के रूप , में शामिल थी-व्याकरण या शब्द विद्या की, हेतु विद्या या तर्कशास्त्र की, चिकित्सा विद्या की, शिल्प विद्या की और रुचि-अनुकूल धर्म और दर्शन की।
(घ) व्याकरण या शब्द विद्या की पढ़ाई भाषा के सम्यक ज्ञान के लिए, हेतु विद्या या तर्कशास्त्र की हर बात को बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए, चिकित्सा विद्या की स्वयं को और दूसरों को नीरोग बनाए रखने के लिए उपयोगी थी।
(ङ) शिल्प विद्या की पढ़ाई की अनिवार्यता इस रूप में और इस कारण थी कि विद्यार्थी शिल्प विद्या के ज्ञान और प्रशिक्षण के माध्यम से अपने व्यावहारिक और आर्थिक जीवन को विशेष उन्नत बनाकर स्वावलंबी हो सके और अपने जीवन को व्यावहारिकता के तल पर विशेष सफल और सक्षम बनाने की दिशा में दक्ष हो सके।
6. आचार्य शीलभद योगशास्त्र के उस समय के सबसे बड़े विद्वान माने जाते थे। उनसे पहले धर्मपाल इस संस्था के प्रसिद्ध कुलपति थे। शीलभद्र, ज्ञानचंद, प्रभामित्र, स्थिरमति, गुणमति आदि अन्य आचार्य युवानचांग के समकालीन थे। जिस समय युवान चांग अपने देश चीन को लौट गए, उस समय में भी अपने भारतीय मित्रों के साथ उनका वैसा ही घनिष्ठ संबंध बना रहा। जब युवान चांग नालंदा से विदा होने लगे, तब आचार्य शीलभ्रद एवं अन्य भिक्षुओं ने उनसे यहाँ रह जाने के लिए अनुरोध किया। युवान चांग ने उत्तर में यह वचन कहे, “यह देश बुद्ध की जन्मभूमि है, इसके प्रति प्रेम न हो सकना असंभव है, लेकिन यहाँ आने का मेरा उद्देश्य यही था कि अपने भाइयों के हित के लिए मैं भगवान के महान धर्म की खोज करूँ। मेरा यहाँ आना बहुत ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है।”
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखिए।
(ख) युवानचांग कौन थे? उन्होंने भारत भूमि के बारे में क्या कहा है? ।
(ग) नालंदा के कौन-कौन आचार्य युवान चांग के समकालीन थे?
भारतीय मित्रों के साथ युवान चांग का कैसा व्यवहार और संबंध था?
(घ) युवान चांग का भारत भूमि में आने का क्या उद्देश्य था? क्या
यहाँ आकर उनके उद्देश्य की पूर्ति हुई?
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) युवानचांग एक चीनी यात्री थे जो भारत के सम्राट हर्षवर्द्धन के शासनकाल में नालंदा आए थे। वहाँ के कई आचार्यों से इनके घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गए थे। उन्होने यहाँ से लौटने के समय अपने भारतीय आचार्य मित्रों से यही कहा था कि भारत एक महान देश है, क्योंकि यह भगवान बुद्ध की जन्मभूमि है। इस देश के लिए प्रेमभाव का जग जाना बिलकुल स्वाभाविक है।
(ग) नालंदा विश्वविद्यालय के उस समय के लब्धप्रतिष्ठ आचार्य शीलभद्र, ज्ञानचंद, प्रभामित्र, स्थिरमति, गुणप्रति आदि इनके समकालीन थे। इन सबके साथ और अन्य जुड़े भारतीय मित्रों के साथ इनका सहज, मधुर और मित्रवत व्यवहार था।
(घ) युवानचांग के कथनानुसार उनका भारत देश में आने का उद्देश्य भगवान बुद्ध की इस जन्मभूमि के दर्शन, उनके प्रति श्रद्धार्पण तथा अपने लोगों के कल्याण के लिए भगवान बुद्ध द्वारा स्थापित महान धर्म का अन्वेषण करना था।
7. साहित्य और धर्म के अतिरिक्त नालंदा कला का भी एक प्रसिद्ध केंद्र था, जिसने अपना प्रभाव नेपाल, तिब्बत, हिन्देशिया एवं मध्य एशिया की कला पर डाला। नालंदा की कांस्य मूर्तियाँ अत्यंत सुंदर और प्रभावोत्पादक हैं। विद्वानों का अनुमान है कि कुर्किहर से प्राप्त हुई बौद्ध मूर्तियाँ नालंदा शैली से प्रभावित हैं। वस्तुत: नालंदा की सर्वांगीण उन्नति उस समन्वित साधना का फल था जो शिल्प विद्या और शब्दविद्या एवं धर्म और दर्शन के एक साथ पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने से संभव हुई। हमारी अभिलाषा होनी चाहिए कि भूतकाल के इस प्रबंध से शिक्षा लें
और कला, शिल्प, साहित्य, धर्म, दर्शन और ज्ञान का एक बड़ा केंद्र नालंदा में हम पुनः स्थापित करें।
(क) पाठ और पाठ के लेखक का नाम लिखें।
(ख) नालंदा की कला का विश्व के किन-किन देशों पर प्रभाव पड़ा? वहाँ की काँस्य मूर्तियों की क्या विशेषताएँ हैं?
(ग) नालंदा की सर्वांगीण उन्नति किस समन्वित साधना का फल है?
(घ) लेखक के अनुसार हमारी क्या अभिलाषाएँ होनी चाहिए?
उत्तर-
(क) पाठ-भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा, लेखक-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) नालंदा की कला का नेपाल, तिब्बत, हिन्देशिया एवं मध्य एशिया के देशों पर प्रभाव पड़ा। नालंदा शैली की कॉस्य मूर्तियाँ अत्यंत सुंदर एवं प्रभावोत्पादक है।
(ग) नालंदा की सर्वांगीण उन्नति शिल्प विद्या, शब्द विद्या एवं धर्म और दर्शन के एक साथ पाठ्यक्रम में सम्मिलित रूप से हुई है। समन्वित रूप से इन विषयों के अध्ययन-अध्यापक से इसे काफी बल मिला है।
(घ) लेखक के अनुसार हमारी अभिलाषा यह होनी चाहिए कि हम नालंदा की भूतकाल की इस समन्वित साधना से शिक्षा लेकर उसी पाठ्यक्रम के अनुरूप कला, शिल्प, साहित्य, धर्म, दर्शन और ज्ञान का एक बड़ा विशाल और भव्य केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय में पुनः स्थापित करें।

 

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