प्रश्न 1. कवि को पृथ्वी की तरह क्यों लगती है? उत्तर- विद्वान कवि नरेश सक्सेना रचित पृथ्वी शीर्षक कविता में पृथ्वी और एक आम स्त्री के गुण-धर्म का साम्य स्थापित किया गया है। ऊपरी तौर पर बात पृथ्वी की हुई है, जबकि तात्पर्य स्त्री से है। कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है, क्योंकि एक स्त्री अपने पूरे जीवनकाल अनेक भूमिकाओं में अनेक केन्द्रों (धूरियों) के चारों तरफ घूमती रहती है।
और अपने ही संसार को बिखरने के कगार पर आ जाता है। किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने आक्रोश-विद्रोह की आग को शिवम् बनाकर, नया रूप देकर ऐसा कुछ सार्थक मूल्यवान प्रस्तुत करती है कि संसार चकित रह जाता है। यही सब कुछ पृथ्वी भी बड़े फलक पर करती है। यही कारण है कि कवि को पृथ्वी स्त्री की तरह लगती है।
प्रश्न 2. पृथ्वी के काँपने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- पृथ्वी के भीतर की बनावट स्थायी न होकर परतदार है। हवा, पानी (समुद्र का) और भूगर्भ ताप के प्रभाव से परतों का स्थान बदलता रहता है। जिसके प्रभाव से प्रतिदिन दुनिया के किसी-न-किसी हिस्से में भूकंप के झटके आते रहते हैं। किन्तु जब यह प्रक्रिया बहुत तीव्रता से होती है, तब भयंकर तबाही वाला भूकंप आता है, इसी को कवि ने पृथ्वी का काँपना कहा है!
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प्रश्न 3. पृथ्वी की सतह पर जल है और सतह के नीचे भी। लेकिन उसके गर्भ के केन्द्र में अग्नि है। स्त्री के सन्दर्भ में इसका क्या आशय है? उत्तर- कविवर सक्सेना ने ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता में नारी की सहनशीलता और उग्रता को पृथ्वी के माध्यम से रेखांकित एवं विश्लेषित किया है। जिस प्रकार पृथ्वी के सतह और सतह के नीचे जल है, ठीक उसी प्रकार नारी का हृदय करुणा, दया, सहनशीलता, ममता का अथाह सागर है। पृथ्वी के गर्भ के केन्द्र में अग्नि है, जो ज्वालामुखी के रूप विस्फोटित होता है।
नारी भी जब क्रोधाग्नि से आवेगित होती है, तो गृहस्थी-रूपी गाड़ी चरमरा जाती है। कवि ने नारी के गौरव का अंकन उसके कर्ममय जीवन के आँगन में स्वस्थ रूप में प्रतिबिंबित किया है। पृथ्वी और नारी के रहस्यों का अन्वेषण-कार्य कवि की तकनीकी दृष्टिकोण से कर दोनों के समानता को उद्घाटित किया है।
प्रश्न 4. पृथ्वी कायेलों को हीरों में बदल देती है। क्या इसका कोई लक्ष्यार्थ है? यदि हाँ तो स्पष्ट करें। उत्तर- कोयला और हीरा रासायनिक भाषा में कार्बन के अपरूप (Altropes) है। पृथ्वी के गर्भ में प्राकृतिक वानस्पतिक जीवाश्म जब गर्भस्थ ऊष्मा ऑक्सीजन की अल्पता तथा भूगर्भीय मा दबाव से जब जल जाते हैं तो कोयला बना जाता है। यही जीवाश्म यदि बहुत अधिक दाब और ताप झेलता है तो हीरा जैसी कीमती कठोर पदार्थ बन जाता है।कवि के इस पंक्ति लक्ष्यार्थ है कि नारी अपने त्याग, अपनी तपस्या और बलिदान की अग्नि में साधारण पात्र को भी सुपात्र बना देती है।
संसार में जितनी भी महान् विभूतियाँ हैं। सबका निर्माण माँ रूपी धधकती भट्ठी में ही हुआ है। स्त्रियों ने सारा दुःख गरल अपमान पीकर सहकर एक से बढ़कर एक नवरत्न उत्पन्न किए हैं। कोयले को हीरा अर्थात् मूर्ख को विद्वान बनाने की साधनात्मक कला स्त्रियों को ही आती है।
प्रश्न 5. “रलों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है तुम्हारा हृदय” -कवि ने इस पंक्ति के माध्यम से क्या कहना चाहा है? उत्तर- महाकवि नरेश सक्सेना ने पृथ्वी के विषय में कहा है कि ‘रत्नों से ज्यादा रत्नों के रहस्यों से भरा है, तुम्हारा हृदय’-पृथ्वी की रहस्यों की गूढ़ती को प्रतिबिंबित करता है। पृथ्वी के गर्भ से प्राप्त हीरा, कोयला, सोना, लोहा इत्यादि जैसे दृश्य रत्नों से तो व्यक्ति परिचित हो जाता है, परन्तु पृथ्वी के हृदय (अन्दर) में पानी, अग्नि जो एक दूसरे के प्रबल शत्रु हैं,
वे एक साथ कैसे रह पाते हैं। कवि विस्मय प्रकट करते हुए कहता है कि रत्नों का निर्माण प्रक्रिया के दौरान पृथ्वी को कितना दबाव, आर्द्रता और ताप को सहना पड़ता है, अनेकों रहस्यों से परिचित होने के बावजूद अभी भी पृथ्वी के सम्पूर्ण रहस्य को जानना एक अनछुआ पहलू, शोध का विषय है। कवि कहना चाहता है कि पृथ्वी के गर्भ से निकले रत्नों के गुण-दोष से हम परिचित हो जाते हैं परन्तु उसके हृदय के अन्दर व्याप्त रहस्यों का जटिलता से पूर्णत: परिचित होने में हम अब भी असफल हैं।
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प्रश्न 6. “तुम घूमती हो तो घूमती चली जाती हो” यहाँ घूमना का क्या अर्थ है? उत्तर- कविवर नरेश सक्सेना ने यहाँ पृथ्वी और नारी की समानता का बिंबात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। कवि कहता है कि पृथ्वी अपने केन्द्र मे घूती हुई अपनी दैनिक और वार्षिक गति के द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है। खनिज सम्पदा, वन सम्पदा और थल सम्पदा को अपने ऊपर निवास करने वाले जीव-जन्तुओं को पृथ्वी मुफ्त में उपहार स्वरूप देकर दनका लालन-पालन में सदा गतिमान रहती है।कवि के अनुसार नारी भी अपनी गृहस्थी के केन्द्र में गतिमान रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती है।
अपनी सेवा, त्याग, ममता, सहिष्णुता, स्नेह की बारिश अपने परिवार को पुष्पित एवं पल्लवित करती है। वह सदा पृथ्वी की तरह बिना थके हुए अपने कर्तव्य-पथ पर घूमती रहती है। कवि ने पृथ्वी और नारी के कर्तव्य निर्वहन को ‘घूमना’ से प्रतिबिंबित किया है।
प्रश्न 7. क्या यह कविता पृथ्वी और स्त्री को अक्स-बर-अक्स रखकर देखने में सफल रही है इस कविता का मूल्यांकन अपने शब्दों में करें। उत्तर- आधुनिक संश्लिष्ट जीवन पद्धति के हिस्सेदार विद्वान कवि नरेश सक्सेना का कवि अभियंता एक तीर से दो शिकार सफलतापूर्वक कर लेता है।पृथ्वी शीर्षक कविता समानान्तर चलने वाली दो कविताओं का संयोजन है। कवि को ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी में जितने गुण-अवगुण हैं उसी का लघु संस्करण एक आम स्त्री है। पृथ्वी की जो भी गतिविधियों हैं, जो भी अवदान है ठीक वैसी ही गतिविधियों स्त्री की भी हैं। पृथ्वी भी धारण करती है (इसीलिए इसका एक नाम धरती है) स्त्री भी धारण करती इसलिए इसका भी एक नाम है।पृथ्वी एक से बढ़कर एक अमूल्य-बहुमूल्य रत्न अपने गर्भ से निकाल कर धरणी दे चुकी है जिससे अपने संतान को उसका जीवन अधिक सुख-सुविधा सम्पन्न हो सका है। पृथ्वी जीवन के उपकरण साधन संसाधन उपलब्ध कराती है। एक स्त्री का तपसचर्या वाला जीवन भी सतत् है जिसके कारण सृष्टि का सृजन का महत् यज्ञ जारी है।
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पृथ्वी दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पृथ्वी के नारीरूप का संक्षेप में विवेचन करें। उत्तर- पृथ्वी कविता में इस पंक्ति की आवृत्ति हुई है-“पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो” इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी को स्त्री मानने के प्रति कवि के मन में आग्रह है। इस आग्रह के कारण कवि ने पूरी कविता में पृथ्वी को नारीपरक अर्थ देने का प्रयास किया है।पृथ्वी को नारी मानकर कवि ने धरती पर उगे पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं तथा बसे हुए नगरों तथा गाँवों के सम्मिलित रूप को उसकी गृहस्थी कहा है।इसी तरह नारी भीतर-बाहर तरल होती है।
लेकिन कभी-कभी प्रचण्ड रूप धारण कर अपने अग्निगर्भा होने का प्रमाण देती है। ज्वालामुखी मों फूटनेवाली पृथ्वी भी अग्निगर्भा है।धरती रत्नगर्भ है। अनेक रत्न उसे खोदने पर प्राप्त होते है।। स्त्री भी एक से एक तेजस्वी और मूल्यवान संतानों को जन्म देने के कारण रत्नगर्भा है। इन तीन विशेषताओं के आलोक में हम कह सकते हैं कि कवि ने स्त्री और पृथ्वी में साम्य अनुभव कर पृथ्वी को नारीरूप माना है।
प्रश्न 2. पृथ्वी शीर्षक कविता का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए। उत्तर- समीक्षा : ‘पृथ्वी’ नरेश सक्सेना की एक ऐसी सशक्त कविता है जो उनकी मानवीय संवेदनाओं को उजागर करती है। पृथ्वी में निरंतर गतिशीलता बनी रहती है, वह अपने केन्द्र पर सतत घूमने के साथ ही एक ओर केन्द्र के चारों ओर घूमती रहती है। वह कभी-कभी अपने अन्तर की ज्वालाओं से द्रवित हो, अपनी ऊपरी सतह पर कंपन उत्पन्न पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर देती है।पृथ्वी की तुलना कवि ने एक स्त्री से की है, और एक कटु सत्य का अन्वेषण किया है।
कवि का दृष्टिकोण आस्थामूलक दिशा की खोज करने का है। स्त्री में जिजीविषा है, आस्था है, वह अपने मन की गहराइयों में उठनेवाली आकुल तरंगों को रोक कर जीवन के सारे प्रश्नों को हल करती है। पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जल है, और नीचे भी जल है, लेकिन उसके गर्भ में, गर्भ के केन्द्र में अग्नि है, यही अग्नि उसे उपादेय बनाती है।वस्तुतः इसी ताप और आर्द्रता से कोयले को हीरे में बदलने की क्षमता होती है।
प्रश्न 3. नरेश सक्सेना की कविता ‘पृथ्वी’ का भाव-सारांश प्रस्तुत करें। उत्तर- देखें-कविता-परिचय, सारांश एवं समीक्षा।
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पृथ्वी लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कवि पूरे विश्वास के साथ पृथ्वी को स्त्री क्यों नहीं मान पाता है? उत्तर- कवि नयी कविता का कवि है। वह आशंका, जिज्ञासा और यथार्थता की भूमि पर स्थित है। वह पृथ्वी और स्त्री में इतनी समानता नहीं अनुभव कर पाता कि पूरे विश्वास से पृथ्वी का मानवीकरण कर उसे स्त्री मान ले।
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प्रश्न 2. पृथ्वी शीर्षक कविता का संक्षेप में परिचय दीजिए। उत्तर- नरेश सक्सेना की ‘पृथ्वी’ शीर्षक कविता ‘समुद्र पर हो रही बारिश’ संकलन में संकलित है इस कविता में प्रकृति (पृथ्वी) मानवीय रागों एवं संवेदनाओं की प्रतिच्छाया के रूप में उभरी है। पृथ्वी और स्त्री में एकरूपता स्थापित करते हुए कवि ने भारतीय नारी के आत्म-संघर्ष, आत्मदान और त्याग का अत्यन्त ही सादगीपूर्ण चित्रण किया है कवि की यह कविता अनुभूति की गंभीरता एवं तन्मयता की दृष्टि से अत्यन्त मार्मिक है।पृथ्वी तो मानो एक भारतीय नारी है, जिसके बाहर भी (आँखों में) जल है और सतह के नीचे भी जल है, लेकिन नारी अग्निगर्भा भी है। पृथ्वी के नीचे जैसे आग है, वैसे ही भारतीय नारी के भीतर आग है जो रत्नों को उत्पन्न करती है। नारी में अगर कोमलता, महणता है, जो कठोरता भी है। पठित कविता में कवि ने स्पष्ट किया है कि पृथ्वी की तरह स्त्री भी अद्भुत गरिमा एवं गौरव से परिपूर्ण होती है।
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पृथ्वी अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कवि क्यों पृथ्वी से बार-बार पूछता है कि क्या तुम कोई स्त्री हो? उत्तर- कवि पृथ्वी की गति और क्रियाकलाप में जो विशेषताएँ पाता है वही स्त्रियों में भी पाता है। अतः वह बार-बार स्त्री होने की बात पूछता है।
प्रश्न 2. पृथ्वी शीर्षक कविता किस काव्य संकलन से ली गई है? उत्तर- नरेश सक्सेना द्वारा लिखित पृथ्वी नामक कविता समुद्र पर हो रही है बारिश नामक काव्य संकलन से ली गई है।
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प्रश्न 3. पृथ्वी शीर्षक कविता में किस बात की अभिव्यक्ति हुई है? उत्तर- पृथ्वी शीर्षक कविता में पृथ्वी की गतिशीलता और उसके चक्र की अभिव्यक्ति हुई है। साथ ही इसमें स्त्री के आत्म-संघर्ष की भी अभिव्यंजना हुई है।
प्रश्न 4. पृथ्वी शीर्षक कविता में पृथ्वी के साथ किसकी एकरूपता स्थापित हुई है। उत्तर- पृथ्वी शीर्षक कविता में पृथ्वी के साथ स्त्री की एकरूपता स्थापित हुई है।
प्रश्न 5. पृथ्वी के घूमते रहने से क्या होता है? उत्तर- पृथ्वी के घूमते रहने से दिन और रात तथा मौसम में परिवर्तन होता है। .
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पृथ्वी काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
1. पृथ्वी तुम घूमती हो ……… नहीं आते। व्याख्या- पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना कहते है। कि पृथ्वी निरन्तर घूम रही है। भौगोलिक तथ्य के अनुसार पृथ्वी की दो गतियाँ हैं-प्रथम वह अपनी धुरी पर घूम रही है, द्वितीय वह वह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है। प्रथम से दिन-रात होते हैं और दूर से ऋतु परिवर्तन। इस तथ्य को व्यक्त करते हुए कवि एक शब्द को पकड़ता है-घूमना। पृथ्वी न जाने कब से, अनन्त काल से घूम रही है। इस आधार पर कवि एक जिज्ञासा करता है-पृथ्वी क्या इस तरह निरन्तर घूमते रहने से तुम्हें चक्कर नहीं आते और इस जिज्ञासा के द्वारा कवि पृथ्वी की जड़ता में मानव-चेतना भर देता है।
2. कभी-कभी काँपती हो……… कोई स्त्री हो। व्याख्या- नरेश सक्सेना ने अपनी ‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में पृथ्वी को एक मानवी के रूप में देखा है। पृथ्वी काँपती है तो भूकम्प होता है जिससे धरती की सतह भी प्रभावित होती है और उस पर बसे-उगे नगर गाँव पेड़-पौधे आदि भी। इस सहज कम्पन की घटना को चेतना से जोड़ते हुए कवि मानता है कि पृथ्वी कभी-कभी काँपती है। उसका यह काँपना प्राकृतिक सहजता नहीं उसकी चेतना सत्ता का विषय है।इस काँपने के कारण कवि को लगता है कि यह एक ऐसी स्त्री का क्रोध में काँपना है जो क्रोध के आवेग में अपनी ही गृहस्थी को नष्ट-भ्रष्ट करती है। यहाँ कवि ने पेड़, पर्वत, नदी, टीले गाँव, शहर आदि के सम्मिलित रूप को पृथ्वी की गृहस्थी माना है और पृथ्वी को गृहस्थिन नारी। मानवीकरण की इस संभावना के बीच कवि प्रश्न करता है कि क्या तुम एक स्त्री हो? स्पष्टतः कवि की दृष्टि में पृथ्वी का आचरण तक तेजस्विनी अग्नि गुण प्रधान नारी का है।
3. तुम्हारी सतह पर कितना जल है …….. सिर्फ अग्नि। व्याख्या- ‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना ने भौगोलिक तथ्य को काव्यत्व में परिवर्तित किया है। पृथ्वी की सतह पर प्रायः दो-तिहाई भाग में जल है। इसके नीचे भी विभिन्न स्तरों पर जल है जो खुदाई द्वारा ज्ञात होता है। लेकिन यह भी भौगोलिक सच है कि पृथ्वी के भीतर स्थित जल की सतहों से बहुत नीचे भारी मात्रा में आग है। इसलिए धरती अग्निगर्भा है।कवि की दृष्टि में स्त्री ऊपर से भी जल की तरह तरल है और हृदय के स्तर पर भीतर भी भावनाओं के कारण तरल है। लेकिन उसमें भीतर अग्नि-तत्त्व भी प्रबल है जो प्रायः विशेष परिस्थितियों में उसे ज्वालामुखी बनता देती है और वह चण्डी बन जाती है। इस तरह सभी पृथ्वी में समानता तलाशते हुए कवि पृथ्वी से पूछता है-“क्या तु कोई स्त्री हो?”
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4. कितने ताप कितने दबाव ……………… कोई स्त्री हो। व्याख्या- ‘पृथ्वी’ कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में नरेश सक्सेना ने पृथ्वी के रत्नगर्भा रूप का वर्णन किया है। भौगोलिक सच के अन्तर्गत हम जानते हैं कि धरती के नीचे से कोयला निकलता है। वैज्ञानिकों ने अधिक ताप के स्तर पर कोयला से हीरा बनाकर यह सिद्ध किया है कि उच्चतम ताप की स्थिति होने पर विशेष उपादानों के संयोग के कारण कोयला हीरा बन जाता है। धरती के भीतर से खोदकर ही हम अन्य कई रत्न निकालते हैं ये रत्न ताप, आर्द्रता और दबाव की प्रक्रियाओं के कारण निर्मित होते हैं और धरती का रत्नगर्भा नाम सार्थक करते हैं। यह प्रक्रिया अप्रकट घटित होती है।