स्वदेशी
1.कविता के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
वस्तुत: किसी भी गद्य या पद्य का शीर्षक वह धुरी होता है जिसके चारों तरफ कहानी या भाव घूमते रहता है। रचनाकार शीर्षक देते समय उसके कथानक, कथावस्तु, कथ्य को ध्यान में रखकर ही देता है। प्रस्तुत कविता का शीर्षक ‘स्वदेशी’ अपने आप में उपयुक्त है। पराधीन भारत की दुर्दशा और लोगों की सोच को ध्यान में रखकर इस शीर्षक को रखा गया है। अंग्रेजी वस्तुओं को फैशन मानकर नये समाज की परिकल्पना करते हैं।
रहन-सहन खान-पान आदि सभी पाश्चात्य देशों का ही अनुकरण कर रहे हैं। स्वदेशी वस्तुओं को तुच्छ मानते हैं। हिन्दु, मुस्लमान, ईसाई आदि सभी विदेशी वस्तुओं पर ही भरोसा रखते हैं। उन्हें अपनी संस्कृति विरोधाभास लाती है। बाजार में विदेशी वस्तुएँ ही नजर आती है। भारतीय कहने-कहलाने पर अपने आप को हेय की दृष्टि से देखते हैं। सर्वत्र पाश्चात्य चीजों का ही बोल-बाला है। अतः इन दृष्टान्तों से स्पष्ट होता है। प्रस्तुत कविता का शीर्षक सार्थक और समीचीन है।
प्रश्न 2.कवि को भारत में भारतीयता क्यों नहीं दिखाई पड़ती?
उत्तर-
किसी देश के प्रति वहाँ के जनता की कितनी निष्ठा है, देशवासी को अपने देश की संस्कृति में कितनी आस्था है यह उसके रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान से पता चलता है। कवि को भारत में स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि यहाँ के लोग विदेशी रंग में रंगे हैं। खान-पान, बोल-चाल, हाट-बाजार अर्थात् सम्पूर्ण मानवीय क्रिया-कलाप में अंग्रेजीयत ही अंग्रेजीयत है। पाश्चात्य सभ्यता का बोल-बाला है। भारत का पहनावा, रहन-सहन, खान-पान कहीं दिखाई नहीं देता है। हिन्दू हों या मुसलमान, ग्रामीण हो या शहरी, व्यापार हो या राजनीति चतुर्दिक अंग्रेजीयत की जय-जयकार है। भारतीय भाषा, संस्कृति, सभ्यता धूमिल हो गई है। अतः कवि कहते हैं कि भारत में भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है।
प्रश्न 3.कवि समाज के किए वर्ग की आलोचना करता है और क्यों?
उत्तर-
उत्तर भारत में एक ऐसा समाज स्थापित हो गया है जो अंग्रेजी बोलने में शान की बात समझता है। अंग्रेजी रहन-सहन, विदेशी ठाट-बाट, विदेशी बोलचाल को अपनाना विकास मानते हैं। हिन्दुस्तान की नाम लेने में संकोच करते हैं। हिन्दुस्तानी कहलाना हीनता की बात समझते ।। हैं। झूठी प्रशंसा करते हुए फूले नहीं समाते। अपनी मूल संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर गौरवान्वित होना अपने देश में प्रचलित हो गया है। ऐसी प्रचलन को बढ़ावा देने वाले वर्ग की कवि आलोचना करते हैं क्योंकि यह देशहित की बात नहीं है। ऐसा वर्ग देश को पुनः अपरोक्ष रूप से विदेशी-दासता के बंधन में बाँधने को तत्पर हो रहा है।
प्रश्न 4.कवि नगर, बाजार ओर अर्थव्यवस्था पर क्या टिप्पणी करता है?
उत्तर-
कवि के अनुसार आज नगर में स्वदेशी की झलक बिल्कुल नहीं दिखती। नगरीय व्यवस्था, नगर का रहन-सहन सब पाश्चात्य सभ्यता का अनुगामी हो गया है। बाजार में वस्तुएँ विदेशी दिखती हैं। विदेशी वस्तुओं को लोग चाहकर खरीदते हैं। इससे विदेशी कंपनियाँ लाभान्वित हो रही हैं। स्वदेशी वस्तुओं का बाजार-मूल्य कम हो गया है। ऐसी प्रथा से देश की आर्थिक स्थिति पर कुप्रभाव पड़ रहा है। चतुर्दिक विदेशीपन का होना हमारी कमजोरी उजागर कर रही है।
प्रश्न 5.नेताओं के बारे में कवि की क्या राय है ?
उत्तर-
आज देश के नेता, देश के मार्गदर्शक भी स्वदेशी वेश-भूषा, बोल-चाल से परहेज करने लगे हैं। अपने देश की सभ्यता संस्कृति को बढ़ावा देने के बजाय पाश्चात्य सभ्यता से स्वयं प्रभावित दिखते हैं। कवि कहते हैं कि जिनसे धोती नहीं सँभलती अर्थात् अपने देश के वेश-भूषा को धारण करने में संकोच करते हों वे देश की व्यवस्था देखने में कितना सक्षम होंगे यह संदेह का विषय हो जाता है। जिस नेता में स्वदेशी भावना रची-बसी नहीं है, अपने देश की मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं, उनसे देश सेवा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। ऐसे नेताओं से देशहित की अपेक्षा करना ख्याली-पुलाव है।
प्रश्न 6.कवि ने डेफाली किसे कहा है और क्यों?
उत्तर-
जिन लोगों में दास-वृत्ति बढ़ रही है, जो लोग पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति की दासता के बंधन में बंधकर विदेशी रीति-रिवाज का बने हुए हैं उनको कवि डफाली की संज्ञा देते हैं क्योंकि व विदेश की पाश्चात्य संस्कृति की, विदेशी वस्तुओं की, अंग्रेजी की झूठी प्रशंसा में लगे हुए हैं। डफाली की तरह राग-अलाप रहे हैं, पाश्चात्य की, विदेशी एवं अंग्रेजी की गाथा गा रहे हैं।
प्रश्न 7.व्याख्या करें
(क) मनुज भारती देखि कोउ, सकत नहीं पहिचान।
(ख) अंग्रेजी रूचि, गृह, सकल वस्तु देस विपरीत।
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्ति हिन्दी साहित्य की पाठ्य-पुस्तक के ‘स्वदेशी’ शीर्षक पद से उद्धत है। इसकी रचना देशभक्त कति बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ द्वारा की गई है। इसमें कवि ने देश-प्रेम की भाव को जगाने का प्रयास किया है। कवि ने स्वदेशी भावना को जगाने की आवश्यकता पर बल दिया है। पाश्चात्य रंग में रंग जाना कवि के विचार से दासता की निशानी है।
प्रस्तुत व्याख्येय में कवि ने कहा है कि आज भारतीय लोग अर्थात् भारत में निवास करने वाले मनुष्य इस तरह से अंग्रेजीयत को अपना लिये हैं कि वे पहचान में ही नहीं आते कि भारतीय हैं। आज भारतीय वेश-भूषा, भाषा-शैली, खान-पान सब त्याग दिया गया है और विदेशी संस्कृति को सहजता से अपना लिया गया है। मुसलमान, हिन्दु सभी अपना भारतीय पहचान छोड़कर अंग्रेजी की अहमियत देने लगे हैं। पाश्चात्य का अनुकरण करने में लोग गौरवान्वित हो रहे हैं।
(ख) प्रस्तुत पंक्ति हिन्दी साहित्य की पाठ्य पुस्तक के कवि ‘प्रेमघन’ जी द्वारा रचित ‘स्वदेशी’ पाठ से उद्धत है। इसमें कवि ने कहा है कि भारत के लोगों से स्वदेशी भावना लुप्त हो गई है। विदेशी भाषा, रीति-रिवाज से इतना स्नेह हो गया है कि भारतीय लोगों का रुझान स्वदेशी के प्रति बिल्कुल नहीं है। सभी ओर मात्र अंग्रेजी का बोलबाला है।
प्रश्न 8.आपके मत से स्वदेशी की भावना किस दोहे में सबसे अधिक प्रभावशाली है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
मेरे विचार से दोहे संख्या 9 (नौ) में स्वदेशी की भावना सबसे अधिक प्रभावशाली है। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति सभ्यता में जितनी अधिक सरलता, स्वाभाविकता एवं पवित्रता है उतनी विदेशी संस्कृति सभ्यता में नहीं है। आज ऐसा समय आ गया है कि यहाँ के लोगों से जब पवित्र भारतीय संस्कृति का प्रबंधन कार्य ही नहीं संभल रहा है तो जटिलता से भरी हुई विदेशी संस्कृति का निर्वाह कहाँ तक कर सकेंगे। अतः हर स्थिति में पूर्ण बौधिकता का परिचय देते हुए भारतीय संस्कृति, मूल वंश-भूषा का निर्वहन किया जाना चाहिए।
प्रश्न 9.स्वदेशी कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
प्रेमधन सर्वस्व’ से संकलित प्रस्तुत दोहा में प्रेमघन ने देश-दशा का उल्लेख करते हुए नव जागरण का शंख फूंका है। वे कहते हैं-
देश के सभी लोगों में विदेशी रीति, स्वभाव और लगाव दिखाई पड़ रहा है। भारतीयता तो अब भारत में दिखाई ही नहीं पड़ती। आज भारत के लोगों को देखकर पहचान करना कठिन है कि कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान और कौन ईसाई।
विदेशी भाषा पढ़कर लोगों की बुद्धि विदेशी हो गई है। अब इन लोगों को विदेशी चाल-चलन भाने लगी है। लोग विदेशी ठाट-बाट से रहने लगे हैं अपना देश विदेश बन गया है। कहीं भी नाममात्र को भारतीयता दृष्टिगोचर नहीं होती।
अब तो हिन्दू लोग हिन्दी नहीं बोलते। वे अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं, अंग्रेजी में ही भाषण देते हैं। वे अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करतं, अंग्रेजी कपड़े पहनते हैं। उनकी रीति और नीति भी अंग्रेजी जैसी है। घर और सारी चीजें देशी नहीं हैं। ये देश के विपरीत हैं।
सम्प्रति, हिन्दुस्तानी नाम से भी ये शर्मिंदा होते और सकुचाने लगते हैं। इन्हें हर भारतीय वस्तु से घृणा है। इनके उदाहरण हैं देश के नगर। सर्वत्र अंग्रेजी चाल-चलन है। बाजारों में देखिए अंग्रेजी माल भरा है।
देखिए, जो लोग अपनी ढीली-ढाली धोती नहीं सँभाल सकते, वे लोग देश को क्या सँभालेंगे? यह सोचना ही कल्पनालोक में विचरण करना है। चारों ओर चाकरी की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ये लोग झूठी प्रशंसा, खुशामद कर डफली अर्थात् ढिंढोर भी बन गए हैं।
प्रश्न 10.‘स्वदेशी’ के दोहे राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं। कैसे ? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर-
बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ कृत ‘स्वदेशी’ के दोहे राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता के शनैः-शनैः होते विलोपन से व्याकुल मन के चीत्कार हैं। पराधीन काल में जब लोगों की वेश-भूषा, चाल-ढाल, को अंग्रेजीयत के रंग में रंगता दिखलाई पड़ता है तो उसे पीड़ा होती है। अब तो भारतीयों की पहचान मुश्किल हो रही है-‘मनुज भारतीय कोऊ सकत नहीं पहिचान, मुसलमान, हिन्दू किंधौं, के ये हैं ये क्रिस्ताना’
कवि यह देख भी दुखी होता है कि विदेशी विद्या ने देश के लोगों की सोच ही बदल दी है-
पढ़ि विद्या परदेश की बुद्धि विदेशी पाया
चाल चलन परदेस की, गई इन्हें अति भाय।।
लोगों में तो लगता है कि भारतीयता लेशमात्र को नहीं बची। लोग अंग्रेजी बोल रहे हैं, अंग्रेजी ढंग से रह रहे हैं। हिन्दुस्तानी नाम से ही लज्जा महसूस करते हैं और भारतीय वस्तुओं से घृणा करते हैं –
हिन्दुस्तानी नाम सुनि, अब ये सकुचित लजात।
भारतीय सब वस्तु ही, सों ये हाथ घिनात।
कवि की राष्ट्रीय भावना पर कहर चोट तब पड़ती है जब सभी वर्ग के लेकर आत्म-सम्मान छोड़कर चाकरी के लिए ललायित हो रहे हैं, अंग्रेज हाकिमों की इन प्रशंसा कर रहे हैं। सबसे बड़ी हताशा उसे अपने नेताओं की हालत पर हो रही है वे देश के नहीं, अपने कल्याण में लगे
हैं। स्वार्थपरता ने उन्हें इतना घेर लिया कि उनकी संतानों ही हाथ से निकल रही है। जब ये अपना घर ही नहीं सँभाल सकते तो देश क्या सँभालेंगे-
जिनसों सम्हल सकत नहिं तनकी धोती ढीली ढाली।
देस प्रबंध करिहिंगे यह, कैसी खाम ख्याली।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘स्वदेशी’ के दोहों में देश की दशा के वक्त के माध्यम से कवि ने लोगों में राष्ट्रीय भावना भरने की चेष्टा की है। अतएव, दोहे निश्चित तौर पर राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं। इनसे राष्ट्रभक्ति को प्रेरक मिलती है।