तिरिछ
लेखक- उदय प्रकाश
लेखक परिचय
जन्म- 1 जनवरी 1952
जन्म स्थान : सीतापुर, अनूपपुर, मध्य प्रदेश
माता-पिता : बी. एससी. एम.ए. (हिंदी), सागर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश।
कृतियाँ- दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉल गोमरा का स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, दत्तात्रेय के दुख, अरेबा-परेबा, सुनो कारीगर (कविता संग्रह), ईश्वर की आँख। (निबंध)
लेखक उदय प्रकाश अनेक धारावाहिकों और टी.वी. फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखे।
तिरिछ क्या है ?
यह एक जहरीला छिपकली की एक प्रजाती है। जिसे काटने पर मनुष्य का बचना नामुमकिन हो जाता है। जब उससे नजर मिलता है तब वह काटने के लिए दौड़ता है।
प्रस्तुत पाठ में कवि एक घटना की जिक्र करते हैं जिसका संबंध लेखक के पिताजी से है। लेखक के सपने और शहर से भी है। शहर के प्रति जो एक जन्मजात भय होता है, उससे भी है।
उस समय इनकी पिता की उम्र 55 साल था। दुबला शरीर। बाल बिल्कुल सफेद जैसे सिर पर सुखी रूई रख दी गई हो। दुनिया उनको जानती थी और उन्हें सम्मान करती थी। कवि को उनके संतान होने का गर्व था।
साल में एकाध बार लेखक को उनके पिताजी टहलाने बाहर ले जाते थे। चलने से पहले वह तंबाकू मुँह में भर लेते थे। तंबाकू के कारण वे कुछ बोल नहीं पाते थे। वे चुप रहते थे।
मेरी और माँ की, दोनों की पूरी कोशिश रहती कि पिजाजी अपनी दुनिया में सुख-चैन से रहें वह दुनिया हमारे लिए बहुत रहस्यपूर्ण थी, लेकिन हमारे घर की और हमारे जीवन की बहुत सी समस्याओं का अंत पिताजी रहतु हुए करते थे।
लेखक अपने पिता पर गर्व करते थे, प्यार करते थे, उनसे डरते थे और उनके होने का अहसास ऐसा थ जैसे हम किसी किले में रह रहे हों।
पिताजी एक मजबूत किला थे। उनके परकोटे पर हम सब कुछ भूलकर खेलते थे, दौड़ते थे। और, रात में खुब गहरी नींद मुझे आती थी।
लेकिन उस दिन, शाम को, जब पिताजी बाहर से टहलकर आए तो उनके टखने में पट़टी बँधी थी। थोड़ी देर में गाँव के कई लोग वहाँ आ गए। पता चला कि पिताजी को जंगल में तिरिछ (विषखापर, जहरीला लिजार्ड) ने काट लिया है।
लेखक कहते हैं कि एक बार मैंने भी तिरिछ को देखा है जब वह तालाब के किनारे दोपहर में चट्टानों की दरार से निकलकर वह पानी पीने के लिए तालाब की ओर जा रहा था।
लेखक के साथ थानू था। मोनु के लेखक को बताया कि तिरिछ काले नाग से अधिक खतरनाक होता है। उसी ने बताया कि साँप के ऊपर जब पैर पड़ता है या उसे जब परेशान किया जाता है तब वह काटता है। लेकिन तिरिछ तो नजर मिलते ही दौड़ता है और पिछे पड़ जाता है। थानू ने बताया कि जब तिरिछ पीछे पड़े तो सीधे नहीं भागना चाहिए। टेढ़ा-मेढ़ा चक्कर काटते हुए, गोल-मोल भागना चाहिए।
जब आदमी भागता है तो जमीन पर वह सिर्फ अपने पैरों के निशान ही नहीं छोड़ता, बल्कि साथ-साथ वहाँ की धूल में, अपनी गंध भी छोड़ जाता है। तिरिछ इसी गंध के सहारे दौड़ता है। थानू ने बताया कि तिरिछ को चकमा देने के लिए आदमी को यह करना चाहिए कि पहले तो वह बिलकुल पास-पास कदम रखकर, जल्दी-जल्दी कुछ दूर दौड़े फिर चार-पाँच बार खूब लंबी-लंबी छलाँग दे। तिरिछ सूँघता हुआ दौड़ता आएगा, जहाँ पास-पास पैर के निशान होंगे, वहाँ उसकी रफ्तार खूब तेज हो जाएगी-और जहाँ से आदमी ने छलाँग मारी होगी, वहाँ आकर उलझन में पड़ जाएगा। वह इधर-उधर तब तक भटकता रहेगा जब तक उसे अगले पैर का निशान और उसमें बसी गंध नहीं मिल जाती।
लेखक को तिरिछ के बारे में और दो बातें पता थी। एक तो यह कि जैसी ही वह आदमी को काटता है वैसे ही वहाँ से भागकर पेशाब करता है और उस पेशाब में लोट जाता है। अगर तिरिछ ऐसा कर लिया तो आदमी बच नहीं सकता। अगर उसे बचना है तो तिरिछ के पेशाब करके लोटने से पहले ही खुद को किसी नदी, कुएँ या तालाब में डुबकी लगा लेनी चाहिए या फिर तिरिछ को ऐसा करने से पहले ही मार देना चाहिए।
दूसरी बात है कि तिरिछ काटने के लिए तभी दौड़ता है, जब उससे नजर टकरा जाए। अगर तिरिछ को देखो तो कभी आँख मत मिलाओ।
लेखक कहते हैं कि मैं तमाम बच्चों की तरह उस समय तिरिछ से बहुत डरता था। मेरे सपने में दो ही पात्र थे-एक हाथी और दूसरा तिरिछ। हाथी तो फिर भी दौड़ता-दौड़ता थक जाता था और मैं बच जाता था लेकिन तिरिछ कहीं भी मिल जाता है। इसके लिए कोई निश्चित स्थान नहीं था। कवि सपने में उससे बचने की कोशिश करते जब बच नहीं पाते तो जोरों से चिखते, चिल्लाते, रोने लगते। पिताजी को, थानू को या माँ को पूकारता और फिर जान जाता कि यह सपना है।
लेखक की माँ बतलाती कि उन्हें सपने में बोलने और चिखने की आदत है। कई बार लेखक को उनकी माँ ने निंद में रोते हुए देखा था।
लेखक को शक होता है कि पिताजीको उसी तिरिछ ने काटा था, जिसे मैं पहचानता था और जो मेरे सपने में आता था।
लेकिन एक अच्छी बात यह हुई की जैसे ही वह तिरिछ पिताजी को काटकर भागा, पिताजी ने उसका पीछा करके उसे मार डाला था। तय था कि अगर वे फौरन उसे नहीं मार पाते तो वह पेशाब करके उसमें जरूर लोट जाता। फिर पिताजी किसी हाल में नहीं बचते। कवि निश्चिंत थे कि पिताजी को कुछ नहीं होगा तथा इस बात से भी खुश थे कि जो मेरे सपने में आगर मुझे परेशान करता था, उसे पिताजी ने मार दिया है। अब मैं बिना किसी डर के सपने में सीटी बजाता घूम सकता था।
उस रात देर तक लेखक के घर में भीड़ थी। झाड़फूँक चलती रही और जख्म को काटकर खून भी बाहर निकाला गया तथा जख्म पर दवा भी चढ़ाया गया।
अगली सुबह पिताजी को शहर जाना था। अदालत में पेशी थी। उनके नाम सम्मन आया था। हमारे गाँव से लगभग दो किलोमीटर दूर निकलनेवाली सड़क से शहर के लिए बसें जाती थी। उनकी संख्या दिन भर में दो से तीन ही थी। पिताजी जैसे ही सड़क तक पहुँचे, शहर जानेवाला पास के गाँवका एक टै्रक्टर मिल गया। टै्रक्टर में बैठे हुए लोग पहचान के थे।
रास्ते में तिरिछ वाली बात चली। पिताजी ने अपना टखना उन लोगों को दिखाया। उसी में बैठे पंडित राम औतार ने बताया कि तिरिछ का जहर 24 घंटे बाद असर करती है। इसलिए अभी पिताजी को निश्चिंत नहीं होना चाहिए। कुछ ने कहा कि ठिक किया कि उसे मार दिया लेकिन उसी वक्त उसे जला भी देना चाहिए। उनलोगों का कहना था कि बहुत से कीड़े-मकोड़े रात में चंद्रमा की रोशनी में दुबारा जी उठते हैं। ट्रैक्टर के लोगों को शक था कि कहीं ऐसा न हो कि रात में जी उठने के बाद तिरिछ पेशाब करके उसमें लोट गया हो।
अगर पिताजी उस तिरिछ की लाश को जलाने के लिए ट्रैक्टर से उतरकर, वहीं से, गाँव लौट आतेतो गैर-जमानती वारंट के तहत वे गिरफ्तार कर लिए जाते और हमारा घर हमसे छिन जाता। अदालत हमारे खिलाफ हो जाती।
लेकिन पंडित राम और एक वैद्य भी थे। उसने सुझाया कि एक तरीका है, जिससे वह पेशी में हाजिर भी हो सकते हैं ओर तिरिछ की जहर से बच भी सकते हैं। उसने कहा कि विष ही विष की औषधी होता है। अगर धतूरे के बीज कहीं मिल जाएँ तो वह तिरिछ के जहर की काट तैयार कर सकते हैं।
अगले गाँव सुलतानपुर में ट्रैक्टर रोका गया तथा एक खेत से धतूरे के बीजों को पीसकर उन्हें पिलाया गया। लेखक के पिजाती को चक्कर आने लगा तथा गला सुखने लगा।
ट्रैक्टर ने पिताजी को दस बजकर पाँच-सात मिनट के आस-पास शहर छोड़ा। लेखक के पिताजी को लगातार गला सुख रहा था। रास्ते में एक होटल पड़ता था वहाँ वह पानी नहीं पीये क्योंकि होटल वाले ने पिछली बार उन्हें गाली दिया था। इसलिए वह गाँव के एक लड़का रमेश दŸा के पास गए, जो भूमि विकास सहकारी बैंक में क्लर्क था। कवि कहते हैं कि हो सकता है कि पिताजी के दिमाग में केवल बैंक रहा होगा, इसलिए वह अचानक स्टेट बैंक देखकर रूक गए होंगें। पिताजी ने सोचा होगा कि उससे पानी भी माँग लेंगें और अदालत जाने का रास्ता भी पूछ लेंगें।
पिताजी ने सीधा कैशियर के पास पहुँच गए। उनका चेहरा धतुरा के काढा पीने के कारण डरावना हो गया था। बैंक के कैशियर डर कर चिल्लाया उसी बीच सुरक्षा गार्ड आ गए तथा पिताजी को मारते हुए बाहर निकले तथा उनके पैसे और अदालत के कागज छीन लिए। इसलिए पिताजी ने सोचा कि अब अदालत जाकर क्या होगा। अतः उसने शहर से बाहर निकलने का सोचा।
लगभग सवा एक बजे वह पुलिस थाना पहुँचे थे जो शहर के बाहरी छोर पर पड़ता था। बैंक में गार्ड ने उनका कपड़ा फाड़ दिया था। उनके शरीर पर कमीज नहीं थी, पैंट फटी हुई थी।
पिताजी थाने के एस. एच. ओ. के पास पहुँचे तो उसने पागल समझकर सिपाही से कहकर बाहर फेंकवा दिया। सिपाही ने उन्हें घसीटते हुए बाहर फेंका। बाद में एस. एच. ओ. को कहना था कि हम जानते वह रामस्थरथ प्रसाद भूतपूर्व हेडमास्टर थे तो अपने थाने में दो चार घंटा जरूर बैठा लेते।
सवा दो बजे पिताजी को सबसे संपन्न कोलोनी इतवारी कोलोनी में घसीटते हुए देखे गए। लड़के पागल और बदमास समझकर उन्हें तंग कर रहे थे। इतवारी कोलोनी के लड़कों का कुछ झुंड उनके पीछे पड़ गया था। पिताजी ने एक गलती यह की थी कि उसने एक ढेला उठाकर भीड़ पर चला दी थी जिससे एक 7-8 साल के लड़के को लग गई थी। उसको कई टाँके भी लगे थे। तब से भीड़ और उग्र हो गई थी तथा उनको पत्थरों से मार रही थी।
ढाबा के सामने ही पिताजी को झुंड मार रही थी। ढाबा का मालिक सतनाम सिंह ने पंचनामा और अदालत से बचने के लिए जल्दी ही अपना ढाबा बन्द करके फिल्म देखने चला गया।
साम लगभग छः बजे थे जब सिविल लाइंस की सड़क की पटरियों पर एक कतार में बनी मोचियों की दुकानों में से एक मोची गणेशवा की गुमटी में पिताजी ने अपना सर घुसेड़ा। उस समय तक उनके शरीर पर चड्डी भी नहीं रही थी, वे घुटनों के बल किसी चौपाये की तरह रेंग रहे थे। शरीर पर कालिख और कीचड़ लगी हुई थी और जगह-जगह चोटें आई थी। गणेशवा लेखक के गाँव के बगल का मोची था। उसने बताया कि मैं बहुत डर गया था और मास्टर साबह को पहचान ही नहीं पाया। उनका चेहरा डरावना हो गया था और चिन्हाई में नहीं आता था। मैं डर कर गुमटी से बाहर निकल आया और शोर मचाने लगा।
लोगों ने जब गणेशवा की गुमटी के अंदर झाँका तो गुमटी के अंद , उसके सबसे अंतरे-कोने में, टूटे-फूटे जूतों, चमड़ों के टुकड़ों, रबर और चिथड़ों के बीच पिताजी दुबके हुए थे। उनकी साँसे थोड़ी-थोड़ी चल रही थीं। उन्हें खींच कर बाहर निकाला गया तभी गणेशवा ने उन्हें पहचान लिया। गणेशवा ने उनके कान में कुछ आवाज लगाई लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहे थे। बहुत देर बात उसने ‘राम स्वारथ प्रसाद‘ और ‘बकेली‘ जैसा कुछ कहा था। फिर चुप हो गए थे।
पिताजी की मृत्यु सवा छह बजे के आसपास तारीख 17 मई, 1972 को हुई थी।
पोस्टमार्टम में पता चला कि उनकी हड्डियों में कई जगह फ्रैक्चर था, दाईं आँख पूरी तरह फूट चूकी थी, कॉलर बोन टूटा हुआ था। उनकी मृत्यु मानसिक सदमे और अधिक रक्तस्त्राव के कारण हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार उनका अमाशय खाली था, पेट में कुछ नहीं था। इसका मतलब यही हुआ कि धतूरे के बीजों का काढ़ा उल्टियों द्वारा पहले ही निकल चुका था।
लेखक को तिरिछ का सपना अब नहीं आता है। वह इस सवाल को लेकर हमेशा परेशान रहते हैं कि आखिककार अब तिरिछ का सपना मुझे क्यों नहीं आता है।