अर्द्धनारीश्वर

अर्द्धनारीश्वर

अर्द्धनारीश्वर

1. ‘यदि संधि की वार्ता कुंती और गांधारी के बीच हुई होती, तो बहुत संभव था कि महाभारत न मचता’। लेखक के इस कथन से क्या आप सहमत हैं? अपना पक्ष रखें

उत्तर – रामधारी सिंह दिनकर लेखक नारी के गुण की चर्चा करते हुए कहते हैं कि दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता नारी के गुण है। इस गुण के कारण नारी विनम्र और दयावान होती है। इस गुण का अच्छा पक्ष यह है कि यदि पुरुष इन गुणों को अंगीकार कर ले तो अनावश्यक विनाश से बचा जा सकता है। पुरुष सदियों से अपने आपको शक्तिशाली मानता आया है। उसने नारियों को घर की चारदीवारी में सीमित किया। घर का जीवन सीमित और बाहर की जीवन असीमित, निस्सीम होता गया। पुरुष इतना कर्कश और कठोर हो उठा कि अपना रक्त बहाते समय कुछ नहीं सोचता कि क्या होनेवाला है। स्त्रियों के गुण दया, माया, सहिष्णु और भीरुता पुरुषों के गुण पौरुष, इत्यादि इनके विपरीत है। अतः लेखक कहता है कि यह वार्ता यदि कुंती और गांधारी के बीच हुई होती तो यह महाभारत न हुआ होता। पुरुष में क्रोधादि गुण होते हैं जिसमें समर्पण के बदले अहम का भाव अधिक होता है। दुर्योधन के अहम के कारण यह महाभारत हुआ।

2. अर्द्धनारीश्वर की कल्पना क्यों की गई होती? आज इसकी क्या सार्थकता है?

उत्तर – अर्द्धनारीश्वर, शंकर और पार्वती का काल्पित रूप है। अर्द्धनारीश्वर के द्वारा स्त्री और पुरुष के गुणों को एक एक कर यह बताया गया है कि नर––नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते। अर्थात् नरों में नारियों के गुण आए तो इससे उनकी मर्यादा हीन नहीं बल्कि उनकी पूर्णता. में वृद्धि ही होती है। आज इसकी जरूरत इसलिए है कि पुरुष समाज वर्चस्ववादी है और उसने वह समझ रखा है कि पुरुष में स्त्रीयोचित गुण आ जाने पर स्त्रैण हो जाता है। उसी प्रकार स्त्री समझती है कि पुरुष के गुण सीखने से उसके नारीत्व में बट्टा लगता है। इस प्रकार पुरुष के गुणों के बीच एक प्रकार का विभाजन हो गया है तथा विभाजन की रेखा को लाँघने में नर और नारी दोनों को भय लगता है। इसलिए अर्द्धनारीश्वर की जरूरत है। संसार में पुरुषों के समान ही स्त्रियाँ हैं। जिस प्रकार पुरुषों को सूर्य की धूप पर बराबर अधिकार है उसी तरह नारियों का भी यह अधिकार है। पुरुष ने नारी को षड्यंत्रों के जरिये उसे अपने अधीन कर रखा है। दिनकर इस पुरुष वर्ग एवं स्त्री वर्ग की समझाना चाहते हैं कि नारी–नर पूर्ण रूप से समान हैं। पुरुष यदि नारियों के कुछ गुण अपना ले तो अनावश्यक विनाश से बच सकता है और नारी पुरुषों के गुण अपना ले तो भय से मुक्त हो सकती है। इसीलिए अर्द्धनारीश्वर की कल्पना की गई है।

3. रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द के चिन्तन से दिनकर क्यों असन्तुष्ट हैं?

उत्तर – रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द के चिन्तन में दिनकर असन्तुष्ट इसलिए हैं कि वे अर्द्धनारीश्वर रूप उनके चिन्तन में कहीं प्रकट नहीं हुआ। बल्कि नारी को नीचा दिखाने, उसे अधीन करने की ही बात कही गयी है। दिनकर मानते हैं कि अर्द्धनारीश्वर की कल्पना से इस बात के संकेत हैं कि नर–नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते। दिनकर पाते हैं कि यह दृष्टि रवीन्द्रनाथ के पास नहीं है। वे नारी के गुण यदि पुरुष में आ जाएँ तो उसको दोष मानते हैं। नारियों को कोमलता ही शोभा देती है। वे कहते हैं कि नारी यदि नारी हय की होइवे कर्म–कीर्ति, वीर्यबल, शिक्षा–दीक्षा तार? अर्थात् नारों की सार्थकता उसकी भंगिमा के मोहक और आकर्षक होने में है, केवल पृथ्वी की शोभा, केवल आलोक, केवल प्रेम की प्रतिमा बनने में हैं। कर्मकीर्ति, वीर्यबल और शिक्षा–दीक्षा लेकर वह क्या करेगी? प्रेमचन्द ने कहा है कि “पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह देवता बन जाता है, किन्तु नारी जब नर के गुण सीखती है तब वह राक्षसी हो जाती है।” इसी प्रकार प्रसाद जी इड़ा के विषय में यदि कहा जाय कि इड़ा वह नारी है जिसने पुरुषों के गुण सीखे हैं तो निष्कर्ष निकलेगा कि प्रसादजी भी नारी. की पुरुषों के क्षेत्र से अलग रखना चाहते हैं। नारियों के प्रति इस तरह के भाव तीन बड़े चिन्तकों को शोभा नहीं देता है। इसीलिए दिनकर इनके चिन्तन से दुखी है। नारी संसार में सर्वत्र नारी है और पुरुष पुरुष।

4. प्रवृत्तिमार्ग ओर निवृत्तिमार्ग क्या है?

उत्तर – प्रवृत्तिमार्ग : प्रवृत्तिमार्ग को गृहस्थ जीवन की स्वीकृति का मार्ग है। दिनकरजी के अनुसार गृहस्थ जीवन में नारियों की मर्यादा बढ़ती है। जो पुरुष गृहस्थ जीवन को अच्छा मानते हैं उन्हें प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। जो प्रवृत्तिमार्गी हुए उन्होंने नारियों को गले से लगाया। नारियों का सम्मान दिया। प्रवृत्तिमार्गी जीवन में आनन्द चाहते थे और नारी आनन्द की खान है। वह ममता की प्रतिमूर्ति है। वह दया, माया, सहिष्णुता की भंडार है

निवृत्तिमार्ग : निवृत्तिमार्ग गृहस्थ जीवन को अस्वीकार करनेवाला मार्ग है। गृहस्थ जीवन को अस्वीकार करना नारी को अस्वीकार करना है। निवृत्ति मार्ग से नारी की मान मर्यादा गिरती है। जो निवृत्तिमार्गी बने उन्होंने जीवन के साथ नारी को भी अलग ढकेल दिया क्योंकि वह उनके किसी काम की चीज नहीं थी। उनका विचार था कि नारी मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। यही कारण था कि प्राचीन विश्व में जब वैयक्तिक मुक्ति की खोज मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी साधना मानी जाने लगी, तब झुंड के झुंड विवाहित लोग संन्यास लेने लगे और उनकी अभागिन पत्नियों के .. सिर पर जीवित वैधव्य का पहाड़ टूटने लगा। बुद्ध, महावीर, कबीर आदि संत महात्मा निवृत्तिमार्ग के समर्थक थे।

5. बुद्ध ने आनन्द से क्या कहा?

उत्तर – बुद्ध ने आनन्द से कहा कि आनंद ! मैंने जो धर्म चलाया था, वह पाँच सहस्र वर्ष तक चलने वाला था, किन्तु अब वह केवल पाँच सौ वर्ष चलेगा, क्योंकि नारियों को मैंने भिक्षुणी . होने का अधिकार दे दिया है।

6. स्त्री को अहेरिन, नागिन और जादूगरनी कहने के पीछे क्या मंशा होती है, क्या ऐसा कहना उचित है?

उत्तर – स्त्री को अहेरिन, नागिन और जादूगरनी कहने के पीछे पुरुष की मंशा खुद को श्रेष्ठ साबित करने की है। ऐसा करके पुरुष अपनी दुर्बलता को भी छिपाता है। साथ ही वह नारी को दबाकर रखने के लिए भी ऐसा करता है। ऐसा कहना बिल्कुल भी उचित नहीं है क्योंकि इससे नारी के हृदय को ठेस पहुंचती है। वैसे भी नारी आदरणीय तथा श्रद्धा के योग्य है। समाज में उसका भी बराबर का स्थान है। इसलिए ऐसा कहना पूर्णतः गलत है।

7. नारी के पराधीनता कब से आरम्भ हुई?

उत्तर – नारी की पराधीनता तब आरंभ हुई जब मानव जाति ने कृषि का आविष्कार किया, . . जिसके चलते नारी घर में और पुरुष बाहर रहने लगा। यहाँ से जिंदगी दो टुकड़ों में बँट गई। घर का जीवन सीमित और बाहर का जीवन विस्तृत होता गया, जिससे छोटी जिन्दगी बड़ी जिन्दगी के अधिकाधिक अधीन हो गई। नारी की पराधीनता का यह संक्षिप्त इतिहास है।

8. प्रसंग स्पष्ट करें–

(क) प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता अपने वृक्ष को देखती है।

उत्तर – प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ रचित निबंध अर्द्धनारीश्वर से ली गयी है। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि जिस तरह वृक्ष के अधीन उसकी लताएँ फलती–फूलती हैं उसी तरह पत्नी भी पुरुषों के अधीन है। वह पुरुष के पराधीन है। इस कारण नारी का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। उसके सुख और दुख, प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा यहाँ तक कि जीवन और मरण भी पुरुष की मर्जी पर हो गये। उसका सारा मूल्य इस बात पर जा ठहरा है कि पुरुषों की इच्छा पर वह है। वृक्ष की लताएँ वृक्ष के चाहने पर ही अपना पर फैलाती है। उसी प्रकार स्त्री ने भी अपने को आर्थिक पंगु मानकर पुरुष को अधीनता स्वीकार कर ली और यह कहने को विवश हो गयी कि पुरुष के अस्तित्व के कारण ही मेरा अस्तित्व है। इस परवशता के कारण उसकी सहज दृष्टि भी छिन गयी जिससे यह समझती कि वह नारी है। उसका अस्तित्व है। एक सोची–समझी साजिश के तहत पुरुषों द्वारा वह पंगु बना दी गई। इसीलिए वह सोचती है कि मेरा पति मेरा कर्णधार है मेरी नैया वही पार करा सकता है, मेरा अस्तित्व उसके होने के कारण को लेकर है। वृक्ष लता को अपनी जड़ों से सींचकर उसे सहारा देकर बढ़ने का मौका देता है और कभी दमन भी करता है। इसी तरह एक पत्नी भी इसी दृष्टि से अपने पति को देखती है।

(ख) जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है।

उत्तर- प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर के निबंध अर्द्धनारीश्वर से ली गयी है। निबन्धकार दिनकर कहते हैं कि नारी में दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता जैसे स्त्रियोचित गुण होते हैं। इन गुणों के कारण नारी विनाश से बची रहती है। यदि इन गुणों को पुरुष अंगीकार कर ले तो पुरुष के पौरुष में कोई दोष नहीं आता और पुरुष नारीत्व से पूर्ण हो जाता है। इसीलिए निबंधकार अर्द्धनारीश्वर की कल्पना करता है जिससे पुरुष स्त्री का गुण और स्त्री पुरुष का गुण लेकर महान बन सके। प्रकृति ने नर–नारी को सामान बनाया है पर गुणों में अंतर है। अत: निबन्ध कार नारीत्व के लिए एक महान पुरुष गाँधीजी का हवाला देता है कि गाँधीजी ने अन्तिम दिनों में नारीत्व की ही साधना की थी।

9. जिसे भी पुरुष अपना कर्मक्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्म क्षेत्र है। कैसे?

उत्तर – राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपने निबन्ध ‘अर्द्धनारीश्वर’ में नर–नारी के . समान महत्व पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार नर–नारी एक–दूसरे के पूरक हैं। नर में नारीत्व का गुण एवं नारी में पौरुष का गुण सहज ही दृष्टिगोचर होता है। इस संसार में नर और नारी दोनों का जीवनोद्देश्य एक है। परन्तु पुरुषों ने अन्याय से अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए मनमाने विस्तार का क्षेत्र अधिकृत कर लिया है। जीवन की प्रत्येक बड़ी घटना आज केवल पुरुष–प्रवृत्ति से संचालित होती हुई दिखाई देती है। इसीलिए उसमें कर्कशता अधिक और कोमलता कम दिखाई देती है। यदि इस नियंत्रण और संचालन में नारियों का हाथ हो तो मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि अवश्य होगी। जीवन यज्ञ में उसका भी अपना हिस्सा है और वह हिस्सा घर तक ही सीमित नहीं बाहर भी है। आज नारियों को हर क्षेत्र में कार्य मिल रहा है और उसे वे बड़ी समझदारी से उतनी ही मजबूती के साथ करती है जितने कि पुरुष। यदि पुरुष अपना वर्चस्ववादी रवैया कम करें तो यह संभव है। इस प्रकृति के द्वारा इनमें कोई विभेद नहीं किया गया है तो हम कौन होते हैं उनका विभेद करनेवाले। अतः पुरुष जिसे अपना कार्यक्षेत्र मानता है वह नारियों का भी कर्मक्षेत्र है।

10. ‘अर्द्धनारीश्वर’ निबन्ध में दिनकरजी के व्यक्त विचारों का सार रूप प्रस्तुत करें।

उत्तर – ‘अर्द्धनारीश्वर’ निबंध के द्वारा ‘दिनकर’ यह विभेद मिटाना चाहते हैं कि नर–नारी दोनों अलग–अलग हैं। नर–नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उनमें एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते। ‘दिनकर’ पुरुषों के वर्चस्ववादी रवैये से बाहर आकर नारी को समाज में प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं जिसे पुरुषों से हीन समझा जाता है। दिनकर यह दिखलाना चाहते हैं नारी पुरुष से तनिक भी कमतर नहीं है। पुरुषों को भोगवादी दृष्टि छोड़नी होगी जो स्त्री को भोग्या मात्र समझता है। वे नारियों को भी कहते हैं कि उन्हें पुरुषों के कुछ गुण अंगीकार करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए और नहीं वह समझना चाहिए कि उनके नारीत्व को इससे बट्टा लगेगा या कमी आयेगी। पुरुषों को भी. स्त्रियोचित गुण अपनाकर समाज में स्त्रैण कहलाने से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि स्त्री के कुछ गुण शीलता, सहिष्णुता, भीरुता, पुरुषों द्वारा अंगीकार कर लेने पर वह महान बन जाता है। दिनकर तीन भारतीय चिन्तकों का हवाला देते हुए उनकी चिन्तन की दृष्टि से दुखी होते हैं। दिनकर मानते हैं स्त्री भी पुरुष की तरह प्रकृति की बेमिसाल कृति है कि इसमें विभेद अच्छी बात नहीं। साथ ही नर–नारी दोनों का जीवनोद्देश्य एक है। जिसे पुरुष अपना कर्मक्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्मक्षेत्र है। जीवन की प्रत्येक बड़ी घटना पुरुष प्रवृति द्वारा संचालित होने से पुरुष में कर्कशता अधिक कोमलता कम दिखाई देती है। यदि इस नियंत्रण में नारियों का हाथ हो तो मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि अवश्य होगी। यही नहीं प्रत्येक नर को एक हद तक नारी ओर प्रत्येक नारी को एक हद तक नर बनाना आवश्यक है। दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता ये स्त्रियोचित गुण कहे जाते हैं। इसका अच्छा पक्ष है कि पुरुष इसे अंगीकार कर ले तो अनावश्यक विनाश से बच सकता है। उसी प्रकार अध्यवसाय, साहस और शूरता का वरण करने से भी नारीत्व की मर्यादा नहीं घटती। दिनकर अर्द्धनारीश्वर के बारे में कहते हैं कि अर्द्धनारीश्वर केवल इसी बात का प्रतीक है कि नारी और नर जब तक अलग है तब तक दोनों अधूरे हैं बल्कि इस बात से भी पुरुष में नारीत्व की ज्योति जगे बल्कि यह प्रत्येक नारी में भी पौरुष का स्पष्ट आभास हो।

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