हार-जीत
कवि- अशोक वाजपेयी
लेखक-परिचय
जन्म : 16 जनवरी 1941
जन्मस्थान : दुर्ग, छतीसगढ़
माता-पिता : निर्मला देवी और परमानंद वाजपेयी
शिक्षा: गवर्नमेंट हायर सेकेंडी स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा, सागर विश्वविद्यालय से बी.ए। सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली से अंग्रेजी में एम.ए
वृति :- भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी
सम्मान- साहित्य अकादमी पुरस्कार, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान
कृतियाँ : कहीं नहीं वहीं, एक पतंग अनंत में, शहर अब भी संभावना है, थोड़ी सी जगह, आविन्यों, फिलहाल तीसरा साक्ष्य, बहुरि अकेला।
हार-जीत
वे उत्सव मना रहे हैं। सारे शहर में रोशनी की जा रही है। उन्हें बताया गया है कि
उनकी सेना और रथ विजय प्राप्त कर लौट रहे हैं।
प्रस्तुत पंक्तियाँ हार-जीत शीर्षक गद्य कविता से ली गई है जिसके रचनाकार अशोक वाजपेयी है। इन पंक्तियों में कवि ने राजनीतिक झूठ को उजागर किया है। कवि कहते है नेता जनता को दिग्भ्रमित करते है और उन्हे वास्तविकता से दूर करते है। वाजपेयी जी ने इस कविता में जनता और शासक का सही चित्रण प्रस्तुत किया है। शासक वर्ग भोली-भाली जनता को गुमराह करके खुद सुख भोगती है। कवि ने जनता को जागरूक करने का प्रयास किया है ।
नागरिकों में से ज़्यादातर को पता नहीं है कि किस युद्ध में उनकी सेना और शासक गए थे, युदध किस बात पर था। यह भी नहीं कि शत्रु कौन था पर वे विजयपर्व मनाने की तैयारी में व्यस्त है। उन्हे सिर्फ इतना पता है कि उनकी विजय हई। उनकी से आशय क्या है यह भी स्पष्ट नहीं है।
प्रस्तुत पंक्तियाँ हार-जीत शीर्षक गद्य कविता से ली गई है जिसके रचनाकार अशोक वाजपेयी है। इन पंक्तियों में कवि ने राजनीतिक झूठ को उजागर किया है। कवि कहते हैं कि भोली-भाली जनता को बताया जाता है कि युद्ध में उनकी सेना विजयी होकर लौट रही है जबकि शहर के नागरिकों को ये भी पता नहीं कि ये युद्ध किनके बीच हो रहा है। युद्ध के होने का कारण क्या था। कवि कहना चाहते हैं कि सत्ताधारी लोग जनता को वास्तविकता से दूर रखते हैं लोगो को तो पता ही नहीं कि आखिर युद्ध किससे हो रहा है। जनता को यहीं बताया जाता है कि उनकी विजय हुई है।
किसकी विजय हुई सेना की, कि शासक की, कि नागरिकों की ? किसी के पास पूछने का अवकाश नहीं है। नागरिकों को नहीं पता कि कितने सैनिक गए थे और कितने विजयी वापस आ रहे हैं।
प्रस्तुत पंक्तियाँ हार-जीत शीर्षक गद्य कविता से ली गई है जिसके रचनाकार अशोक वाजपेयी हैं। इन पंक्तियों में कवि ने राजनीतिक झूठ को उजागर किया है। कवि कहते हैं कि भोली-भाली जनता को बताया जाता है कि युद्ध में उनकी सेना विजयी हुई है। लेकिन जनता को यह भी पता नहीं कि विजय सेना कि है या शासक की या नागरिकों की। यह बात पूछने के लिए किसी के पास समय भी नहीं है। नागरिकों को यह भी नहीं पता की कितने सैनिक गए थे और कितने वापस आ रहे है।
खेत रहनेवालों की सूची अप्रकाशित है। सिर्फ एक बूढ़ा मशकवाला है जो सड़कों को सींचते हए कह रहा है कि हम एक बार फिर हार गए हैं और गाजे-बाजे के साथ जीत नहीं हार लौट रही है। उस पर कोई ध्यान नहीं देता है और अच्छा यह है कि उस पर सड़कें सींचने भर की जिम्मेवारी है, सच को दर्ज करने या बोलने की नहीं।
प्रस्तत पंक्तियाँ हार-जीत शीर्षक गदय कविता से ली गई है जिसके रचनाकार अशोक वाजपेयी है। इन पंक्तियों में कवि ने राजनीतिक झूठ को उजागर किया है। कवि कहते है कि खेतों में रहने वाले अर्थात श्रमिक,मजदूर जिन्होने आजादी में अपना योगदान दिया उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। बूढ़ा मशकवाला सड़कों को सीचते हए देश के बदधिजीवी वर्ग की ओर से कहता है कि हमलोग एक बार फिर हार गए है और गाने-बाजे के साथ जीत नहीं हार लौट रही है। लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं देता और अच्छा है क्योंकि वह राजनीति की ज़िम्मेदारी से मुक्त है।
जिन पर है वे सेना के साथ ही जीतकर लौट रहे है।
प्रस्तुत पंक्तियाँ हार-जीत शीर्षक गदय कविता से ली गई है जिसके रचनाकार अशोक वाजपेयी है। इन पंक्तियों में कवि ने राजनीतिक झूठ को उजागर किया है। लेखक के अनुसार शासक और सत्ताधारी वर्ग कभी भी अपनी हार की घोषणा नहीं करता है। वह अपनी हार को भी विजय के रूप में प्रस्तुत करता है तथा जनता को यह स्वीकार करने के लिए विवश करता है कि वह उसे बलवान और समर्थवान समझे।