तुमुल कोलाहल कलह में सारांश

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कवि- जयशंकर प्रसाद
लेखक-परिचय
जीवनकाल : 1889-1937
जन्मस्थान : वाराणसी, उत्तरप्रदेश
पिता : देवी प्रसाद साह

शिक्षा : आठवीं तक | संस्कृत, हिन्दी, फारसी, उर्दू की शिक्षा घर पर नियुक्त शिक्षकों द्वारा

विशेष परिस्थिति : बारह वर्ष की अवस्था में पितृविहीन, दो वर्ष बाद माता की मृत्यु

कृतियाँ : इंदु 1909 में प्रकाशित जिसमें कविता, कहानी, नाटक इत्यादि शामिल है।

प्रमुख काव्‍य संकलन : झरना (1918), आँसू (1925), लहर (1933)

महाराणा का महत्त्व, करुणालय, प्रेम पथिक, कामायनी, छाया, इंद्रजाल, कंकाल, इत्यादि

यह एक छायावाद के कवि हैं।

कामायनी कुल 15 सर्ग हैं।

पात्र : मनु = मनुष्य का मन, श्रद्धा = मनुष्य की हृदय, इड़ा = मनुष्य की बुद्धि

कामायनी

मन यज्ञ करते हैं। उसके बाद मन की श्रद्धा से शादी होती है। मन कृषि कार्य और गोपालन करते है। श्रद्धा माँ बनने वाली होती है। श्रद्धा को एक बेटा होता है। बेटा के जन्‍म के बाद अधिकतर समय वह अपने बेटे को देने के कारण मन को समय नहीं दे पाती है। मन को लगता है कि श्रद्धा हमसे अब प्‍यार नहीं करती है। जिससे मन श्रद्धा को छोड़ कर चले जाते हैं। मन की इड़ा से मुलाक़ात होती है और मन इड़ा से प्यार करने लगते है। मन जब इड़ा से ज़ोर-जबरदस्ती करते है तो इड़ा के राज्‍य की प्रजा इसका विरोध करती है और मन को पीटकर घायल कर देती है।

श्रद्धा मन को खोजते हुए इड़ा के राजमहल में अपने बच्चे मानव के साथ निर्वेद सर्ग पहुँचती है।

श्रदधा मनु को प्राप्त करके आनंद-विभोर हो जाती है और गाती है। मन को लगता है कि उन्होंने दोनों के साथ गलत किया है और वो श्रद्धा और इड़ा को छोड़कर दूसरे जगह चले जाते हैं। श्रद्धा अपने पुत्र को इड़ा के पास छोड़कर मनु को खोजने जाती है और अंतत : दोनों मिलते है।

तुमुल कोलाहल कहल में
तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। जिसमे श्रद्धा मन को पाकर कहती है कि इस अत्यंत कोलाहल में मैं हृदय के बात की तरह हैं।

विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन !

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हई कहती है।

पुरुष जब दिनभर की भाग-दौर और मन की चंचलता के कारण थक जाता है और व्याकुल होकर आराम करना चाहता है तो ऐसी स्थिति में श्रद्धा (नारी का हृदय) मलय पर्वत से चलने वाली सुगंधित हवा की तरह शांति और विश्राम देती है। कवि कहना चाहते हैं कि मन चंचल है और मन की चंचलता के कारण शरीर थक कर आराम खोजता है ऐसी स्थिति में व्यक्ति का हृदय ही उसको आराम देता है।

चिर-विषाद विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर वन की
मैं उषा सी ज्योति रेखा,
कुसुम विकसित प्रात रे मन !

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।

मन अंधकाररूपी दुख के वन में दीर्घ काल के लिए दबा हुआ है। मैं उसमें सुबह की किरणों की तरह हुँ। मैं इस अंधकार से पूर्ण वन में पुष्प से भरे हुए सुबह के समान हूँ।

जहां मरु ज्वाला धधकती
चातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन घाटियों की
मैं सरस बरसात रे मन!

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।

हे मन् ! उस धधकते हए मरुस्थल में जहां चातकी पानी के बुंदों के लिए तरसती है मैं जीवन की घाटी में सरस बरसात की तरह हूँ। कवि कहते है कि जब मानव जीवन कष्ट की अग्नि में मरुस्थल की तरह धधकता है तब आनंद रूपी बारिश ही उसके चित रूपी चातकी को सुख प्रदान करती है।

पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जा रहा झुक
इस झुलसते विश्व-वन की
मैं कुसुम ऋतु रात रे मन !

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हुई कहती है।

हे मन ! जब जीवन पवन की ऊंची चहारदीवारी में बंद होकर झुक जाता है | जब मानव जीवन झुलस जाता है। ऐसी स्थिति में मैं वसंत की रात की तरह हूँ। जो इस झुलसे हुए मन को हरा-भरा कर सकती है।

चिर निराशा नीरधर से
प्रतिच्छायित अश्रु सर में
मधुप मुखर मरंद मकुलित
मैं सजल जलजात रे मन !

प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के निर्वेद सर्ग से ली गई है। इन पंक्तियों में श्रद्धा पुरुष के जीवन में नारी के महत्व को रेखांकित करती हई कहती है।

हे मन ! गहरी निराशा के बादलों से घिरे हुए आसुओं के तालाब में मैं करुणा से भरी हुई कमल के समान हूँ जिसपर भौंरे गुजते रहते है।

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