शिक्षा और संस्कृति

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प्रश्न 1. गाँधी जी बढ़िया शिक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर-
अहिंसक प्रतिरोध सबसे उदात्त और बढ़िया शिक्षा है। वह बच्चों को मिलनेवाली साधारण अक्षर ज्ञान की शिक्षा के बाद नहीं, पहले होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चे को, वह वर्णमाला लिखे और सांसारिक ज्ञान प्राप्त करे उसके पहले यह जानना चाहिए कि आत्मा क्या है सत्य क्या है, प्रेम क्या है और आत्मा में क्या-क्या शक्तियाँ छुपी हुई हैं। शिक्षा का ज़रूरी अंग यह होना चाहिए कि बालक जीवन-संग्राम में प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को कष्ट-सहन से हिंसा को आसानी के साथ जीतना सीखें।

 

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 प्रश्न 2. इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग सीखना क्यों जरूरी है ?
उत्तर-
इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग उसकी बुद्धि के विकास का जल्द-से-जल्द और उत्तम तरीका है। परन्तु शरीर और मस्तिष्क के विकास के साथ आत्मा की जागृति भी उतनी ही नहीं होगी, तो केवल बुद्धि का विकास घटिया और एकांगी वस्तु ही साबित होगा। आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा मतलब हृदय की शिक्षा है। इसलिए मस्तिष्क का ठीक-ठीक और सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है, जब साथ-साथ बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की भी शिक्षा होती रहे।

 

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 प्रश्न 3. शिक्षा का अभिप्राय गांधी जी क्या मानते हैं?
उत्तर-
शिक्षा का मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चे और मनुष्य के शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों को प्रकट किया जाय। पढ़ना-लिखना तो शिक्षा का अन्त है ही नहीं; वह आदि भी नहीं है। वह पुरुष और स्त्री को शिक्षा देने के साधनों में केवल एक साधन है। साक्षरता स्वयं कोई शिक्षा नहीं है। इसलिए तो मैं बच्चे की शिक्षा का प्रारंभ इस तरह करूँगा कि उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाई जाए और जिस क्षण से वह अपनी तालिम शुरू करे उसी क्षण उसे उत्पादन का काम करने योग्य बना दिया जाए।

 

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प्रश्न 4. मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास कैसे संभव है?
उत्तर-
इस प्रकार की शिक्षा पद्धति में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। इतनी ही बात है कि आजकल की तरह प्रत्येक दस्तकारी केवल यांत्रिक ढंग से न सिखाकर वैज्ञानिक ढंग से सिखानी पड़ेगी। अर्थात् बच्चे की प्रत्येक प्रक्रिया का कारण जानना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाय। आपको यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रारंभिक शिक्षा में सफाई, तन्दुरुस्ती, भोजनशास्त्र, अपना काम आप करने और घर पर माता-पिता को मदद देने वगैरह के मूल सिद्धान्त शामिल हों। मौजूदा पीढ़ी के लड़कों को स्वच्छता और स्वावलंबन का कोई ज्ञान नहीं होता और वै शरीर से कमजोर होते हैं। इसलिए मैं संगीतमय कवायद के जरिए उनको अनिवार्य शारीरिक तालीम दिलवाऊंगा।

 

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प्रश्न 5. गाँधी जी कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों द्वारा सामाजिक क्रांति कैसे संभव मानते थे? .
उत्तर-
कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों के संबंध में गाँधीजी की कल्पना थी कि यह एक ऐसी शांत सामाजिक क्रांति की अग्रदूत बने जिसमें अत्यंत दूरगामी परिणाम भरे हुए हैं। इससे नगर और ग्राम के संबंधों का एक स्वास्थ्यप्रद और नैतिक आधार प्राप्त होगा और समाज की मौजूदा आरक्षित अवस्था और वर्गों के परस्पर विषाक्त संबंधों की कुछ बड़ी-से-बड़ी बुराइयों को दूर करने में बहुत सहायता मिलेगी। इससे ग्रामीण जन-जीवन विकसित होगा और गरीब-अमीर का अप्राकृतिक भेदें नहीं होगा।

 

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प्रश्न 6. शिक्षा का ध्येय गाँधी जी क्या मानते थे और क्यों?
उत्तर-
शिक्षा का ध्येय गाँधीजी चरित्र-निर्माण करना मानते थे। उनके विचार से शिक्षा के
माध्यम से मनुष्य में साहस, बल, सदाचार जैसे गुणों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चरित्र-निर्माण होने से सामाजिक उत्थान स्वयं होगा। साहसी और सदाचारी व्यक्ति के हाथों में समाज के संगठन का काम आसानी से सौंपा जा सकता है।

 

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प्रश्न 7. मांधीजी देशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य बमों आवश्यक मानते थे?
उत्तर-
गाँधीजी का मानना था कि देशी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से किसी भी भाषा के विचारों को ज्ञान को आसानी से ग्रहण किया जा सकता है। अंग्रेजी या संसार के अन्य भाषाओं में जो ज्ञान-भंडार पड़ा है, उसे अपनी ही मातृभाषा के द्वारा प्राप्त करना सरल है। सभी भाषाओं से ग्राह्य ज्ञान के लिए अनुवाद की कला परमावश्यक है। अतः इसकी आवश्यकता बड़े पैमाने।

 

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प्रश्न 8. दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की महरी सबा को जरूरी है?
उतर-
दूसरी संस्कृतियों की समझ और कद्र स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं। कोई संस्कृति इतने रत्न-भण्डार से भरी हुई नहीं है जितनी हमारी अपनी संस्कृति है। सर्वप्रथम हमें अपनी संस्कृति को जानकर उसमें निहित . बातों को अपनाना होगा। इससे चरित्र-निर्माण होगा जो संसार के अन्य संस्कृति से कुछ सीखने की क्षमता प्रदान करेगा। अपनी संस्कृति संसार से कुछ ग्रहण करने का मूलाधार है। अतः इससे पहले और अन्य संस्कृतियों से बाद में जुड़ना चाहिए।

 

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प्रश्न 9. अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से सम्पर्क क्यों बनाया जाना चाहिए? मांधी जी की सब स्पष्ट कीजिहा.
उत्तर-
गाँधीजी के विचारानुसार हमें अपनी संस्कृति और मातृभाषा का महत्त्व अवश्य देना चाहिए। अपनी मातृभाषा का माध्यम बनाकर हम अत्यधिक विकास कर सकते हैं। अपनी संस्कृति के माध्यम से जीवन में तेज गति से उत्थान किया जा सकता है। लेकिन हम कूपमंडूक नहीं बनें। दूसरी संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाने में परहेज नहीं किया जाय। इसके लिए ध्यान रखने की बात है कि अपनी संस्कृति एवं भाषा के महत्त्व को कम नहीं आँको साथ-ही इसे आधार बनाकर अन्य भाषा एवं संस्कृति को अपने जीवन से युक्त करें।

 

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प्रश्न 10. गांधी जी किस तरह के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं और क्यों?
उत्तर-
गांधीजी भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सामंजय को भारत के लिए बेहतर मानते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का सामंजस्य भारतीय जीवन को प्रभावित किया है और स्वयं भी भारतीय जीवन से प्रभावित हुई है। रर सामंजस्य कुदरती तौर पर स्वदेशी ढंग का होगा, जिसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित होगा।

 

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प्रश्न 11.
आशयस्कर करें

(क)मैं चाहता हूं कि सारी शिक्षा विकसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाए।
व्याया-
गाँधीजी के विचारानुसार सच्ची और सही शिक्षा वही है जो मनुष्य को मनुष्यता सिखाए। दस्तकारी और उद्योगों के द्वारा जो शिक्षा ही जाएगी उससे गाँवों की बेरोजगारी दूर होगी। व्यावहारिक जीवन में आत्मीयता, प्रेम, करुणा, दया, धर्म, अहिंसा, सत्य और कर्म के प्रति लोगों का रुडार कहेंगा। एक-दूसरे के प्रति लगाव पैदा होगा। मन और मस्तिष्क का उचित विकास होगा। गाँवों स्पिकला, कुटीर उद्योगों का विकास होगा। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक विकास में इससे सहयोम मिलेगा। शरीर-बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों का विकास अलग-अलग रूपों में होगा। आजकल ही शिक्षा मात्र यांत्रिक नहीं होगी बल्कि वैज्ञानिक होगी। ऐसी शिक्षा द्वारा ही मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव हो जायेगा। दस्तकारी और उद्योगों के माध्यम से प्राप्त शिक्षा द्वारा स्वावलम्बन के प्रति लोगों की भावना जागेगी। सभी तत्पर होकर कार्य करेंगे। अपनी संस्कृति के प्रति रुचि दिखायेंगे। उत्पादन विनिमय, वितरण में सुगमता होगी (जनजीवन सुखी और समृद्ध होगा) गाँवों का विकास, उनका विकास और आर्थिक स्वावलंबन होगा। हस्तकला-शिल्पकला की महत्ता और उपयोगिता से लोग अवगत होंगे। ग्राम आधारित उद्योग-धंधों का विकास और जनता के बीच खुशहाली बढ़ेगी।

 

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(ख) इमारत में आर्वसम्मति सी कोई चीननद नहीं है।
व्याया-
गाँधी जी का विचार है कि इस समय जो संस्कृति का विकसित रूप हम देख रहे हैं वह शुद्ध आर्य संस्कृति नहीं है, यह अनेक जातियों एवं धर्मों के सम्मिश्रण के समन्वय का स्वरूप है, आर्य कहाँ से आयें, कैसे आयें या ये मूल निवासी भारत के थे? इस विवाद में गाँधीजी पड़ना नहीं चाहते थे। उनका कहना है कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी के साथ मिल गये और वर्तमान में जो पीढ़ी है, उसी मिश्रण या मिलावट की उपज है। शक, हूण, कुषाण, आर्य, अनार्य, स्वेत श्याम सबका सम्मिश्रण रूप भारत है और यहाँ के निवासी उसी की उपज हैं।

 

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(स) मेस धर्म कैदखाने का बर्ष नहीं है।
व्याख्या-
भारतीय धर्म के बारे में गाँधीजी के विचार हैं कि भारतीय धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है। बलात् किसी पर थोपा नहीं गया है। बलात् किसी धर्मांतरण के लिये प्रताड़ित या सताया गया नहीं है। यह तो समन्वय का धर्म है। प्रेम का धर्म है। अपनत्व और आत्मीयता का धर्म है। यह तो विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम का विराट स्वरूप है। इस प्रकार गाँधीजी ने भारतीय धर्म की विराटता, खुलापन, व्यापक दृष्टिकोण समन्वयवाद भावना आदि रूपों, विशेषताओं की
ओर ध्यान खींचा है और इसे व्यापक मानव हितकारी धर्म कहा है। यहाँ चिन्तन की गहरायी है, आजादी है, सहिष्णुता और सम्मान की भावना है।

 

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